Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 122
________________ १२४ आचार्य कुंदकुंददेव और कर्म भी जीव के किसी गुण का उत्पाद नहीं कर सकता । जीव और कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अवश्य है । अतएव जीव अपने भावों का कर्ता है न कि कर्मों का । मात्र निर्मित्त-नैमित्तिक सम्बंध के कारण से जीव को कर्मों का और कर्म को जीव के भावों का कर्ता व्यवहार से कहा जाता है। निश्चय से जीव, पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता कदापि नहीं है। ग्रन्थाधिराज समयसार को छोड़कर अन्य जैन-जैनेतर किसी भी धर्म-शास्त्र में कर्ता-कर्म अधिकार के समान अलौकिक विषय नहीं है । अतइस विषय का मर्म समझना हमारा कर्तव्य है। पुण्यपापाधिकार :-जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बांधती है वैसे ही सोने की भी । इसीप्रकार पुण्य-पाप दोनों बन्ध ही करते हैं। अत: पाप के समान पुण्य भी हेय ही है । ये दोनों बन्धक, आकुलता उत्पादक और संसार के कारण होने से दोनों का त्याग करना श्रेयस्कर है। __ आप्रवाधिकार :-जीव के मोह राग द्वेषरूप भाव ही सचमुच आस्त्र हैं। इन भावों का निमित्त पाकर कार्माण-वर्गणाओं का जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप संबंध होता है, जिसे द्रव्यास्त्र कहते हैं। अज्ञानी के अज्ञानमय परिणाम होते हैं और ज्ञानी के ज्ञानमय । ज्ञानमय परिणामों से अज्ञानमय परिणाम अवरूद्ध होते हैं । अत: ज्ञानी जीवों को कर्मों का आसन नहीं होता। ___ संवराधिकार :-इसमें संवर तत्व का प्रतिपादन है। रागादि भावों का निरोध ही संवर है । आत्मा में आंशिक शुद्धि प्रगट होना ही संवर है । संवर का मूल कारण भेदविज्ञान है। आत्मा उपयोग - - -

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