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आचार्य कुंदकुंददेव
१२१ भेदविज्ञान ही नहीं किया अत: दु:खी है। बन्ध मार्ग और मोक्षमार्ग में जीव स्वयं ही कर्ता, कर्म, करण है और वही कर्म-फल को भोगता है। इस जीव का पर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा यथार्थ श्रद्धान कभी इसे उदित नहीं हुआ अत: अनेक मिथ्याउपायों को करने पर भी यह जीव दुःखमुक्त नहीं हुआ है।
जगत् का प्रत्येक सत् अर्थात् द्रव्य, उत्पाद-व्यय-धौव्यमय है, गुणपर्याय सहित है; इसके अलावा उस द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है । सत् कहो. द्रव्य कहो, उत्पाद-व्यय ध्रौव्य कहो या गुण-पर्यायों का पिण्ड कहो-सबका अर्थ एक ही है। त्रिकालज्ञ जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रत्यक्ष जाना-देखा हुआ वस्तुस्वरूप का यह मूल सिद्धान्त है। वीतराग-विज्ञान के इस मूलभूत सिद्धान्त को अति ही सुन्दर रीति से और वैज्ञानिक पद्धति से समझाया गया है । द्रव्य का सामान्य व द्रव्य का विशेष स्वरूप ५ इन्द्रिय, ३ बल, आदि १० प्राणों से जीव की भिन्नता, निश्चय बन्धस्वरूप, शुद्धात्मोपलब्धि का फल आदि विषयों का विशद विवेचन किया है। जिनशासन के मौलिक सिद्धान्त को अबाधित सिद्ध किया है।
यह अधिकार जिनशासन का कीर्तिस्तम्भ है । इस अधिकार की रचना करके आचार्य देव ने केवली भगवाने के विरह को विस्मृत सा करा दिया है । वस्तुस्वरूप का कथन अद्भुत शैली से किया है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकरण का सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए। यह श्रुत रत्नाकर अनुपम है।
चरणानुयोग सूचिका चूलिका :-इस अधिकार में यह स्पष्ट रूप से बतलाया गया है कि मोहादिजन्य विकारों से रहित आत्मा की