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आचार्य कुंदकुंददेव
नामक वचन - मौक्तिक माला की रचना की है। इसमें सर्वत्र मुख्यता से शुद्धोपयोगरूप वीतराग चारित्र की महिमा गुंजायमान है ।
इस परम पवित्र शास्त्र में तीन अधिकार हैं । प्रथम अधिकार में ६२ गाथाओं के द्वारा ज्ञानतत्व की चर्चा, द्वितीय अधिकार में ज्ञेयतत्व की चर्चा १०८ गाथाओं द्वारा और तृतीय अधिकार में चारित्र का कथन ७५ गाथाओं के द्वारा किया गया है ।
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ज्ञानतत्व प्रज्ञापन (अधिकार) :- इन्द्रियजन्य ज्ञान व सुख है है । अतिन्द्रिय ज्ञान और सुखं उपादेय है। अनादिकाल से परोन्मुख वृत्तिवाले जीवों को "मैं ज्ञानस्वरूप ही हूँ और मेरा सुख मुझमें ही है" ऐसा श्रद्धान उदित नहीं हुआ है, अतः इनकी परोन्मुखवृत्ति चल रही है, ऐसा कहा है। इस अधिकार में ज्ञानानन्द स्वभाव का विस्तार से वर्णन करके केवल अर्थात् अनंत ज्ञान और अनंत सुख को प्राप्त करने की भावना को जगाया है। क्षायिक ज्ञान ही उपादेय है | क्षायोपशमिकज्ञान वाले (अल्पज्ञ अर्थात आप- हम ) कर्मभार का वहन करते हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान (केवल ज्ञान / पूर्ण ज्ञान ) ही ऐकान्तिक सुखस्वरूप है । परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुलतामय है । केवली भगवान का अतीन्द्रिय सुख वास्तविक सुख है, इन्द्रियजनित सुख तो दुःख रूप ही है । घातिकर्मों से रहित केवली भगवान के सुख का वर्णन सुनकर भी जो जीव उस सुख का श्रद्धान नहीं करते हैं, उन्हें अभव्य कहा है । अन्त में राग-द्वेष निर्मूल करने के यथार्थ उपाय को संक्षेप में बतलाया है ।
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ज्ञेयतत्व प्रज्ञापन ( अधिकार ) :- अनादि काल से संसार में - परिभ्रमण करनेवाले जीवों ने सब कुछ किया, किन्तु स्व-पर का