Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 117
________________ V - दंतं शाशा ၀၄P आचार्य कुंदकुंददेव ११६ पालि मन कि सकती- कतार " है । पर्याय उत्पन्न ध्वं सी हैं पदार्थ द्रव्य दृष्टि से नित्य है. वही पदार्थ पर्यायदूंष्टि से अनित्य है । इस प्रकार जीवादि छहाँ द्रव्यों के सामान्य स्वरूप का विशद निरूपण किया गया है, जो जीव इस पंचास्तिकाय संग्रह को समझकर रागद्वेष को छोड़ देता, है, वह दुःख से मुक्त हो जाता है, इस निरूपणपूर्वक प्रथम, स्कन्धः नई सी -(TAIT) लगातार PIRTI द्वितीय स्कन्ध में सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान और सम्यक्लारित्र का स्पष्ट स्वरूप बताया है। आगे जीव, अजीत पुण्य-माप आस्म संवर निराध और मोक्ष इन्च नवतत्वों का वर्णन करके निश्चय मोक्षमार्ग; और व्यवहारमोक्षमार्ग का विवरण करते हुए। दोनों में सामंजस्य: स्थापित किया है, अरहंत, सिद्धानत्यामवचन औरतज्ञान के प्रति भक्तिसम्पन्न पुरुषः अत्यधिक पुपया बांधता है, परन्तुकर्मक्षय नहीं: करता है. यह भी स्पष्ट किया गया है। कर्मक्षय के लिए प्रशस्त और:: अपशस्त-राग आविसभी भावों के अभाव को आवश्यका बताया है। प्रवचनसारत | PPDSETTE TIPS Fटारि । PORE इस ग्रंथ का मूल (प्राकृत भाषाकीत्अपेक्षा) नाम पवणेसार है।' आचार्यदेव की यह अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है। इस ग्रन्थ के अध्ययन सेआचार्यदेव कीविवर्ती तार्किकता औरआचारनिष्ठा आदि अनेक अनुपम गुणों काध्यथार्थबोध होता है प्रवचनसार में वस्तु के यथार्थः स्वरूप का अति स्पष्ट रीति से विवेचन किया है । ग्रन्यारम्भ में ही आचार्य श्री नापूर्णश्चीतरगिाचारित्र के प्रति अपनी तीव्र आकाँक्षा व्यक्त की है नावअखण्डीरीति से आलस्वरूप में हीन्लीन होना चाहते है। परन्तु जिस समय प्रमत्तावस्था आती थी, उस समय इस प्रवचनसार

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