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आचार्य कुंदकुंददेव
की आत्मानुभूति से आचार्य की मुख-मुद्रा चमकती थी और कंट पर हाथ का भार पुनः पुनः डालने से हाथ थक-सा जाता था; फिर भी लेखन जारी रहता था ।
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लिखे हुए ताड़पत्रों को रखकर दूसरे ताड़पत्र को उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वहाँ ताड़पत्र थे ही कहाँ ? सभी ताड़पत्र समाप्त हो गए थे । समाधि भंग होने से आचार्य ने पश्चिम दिशा की ओर दृष्टिपात किया तो दिनकर विश्रांति के लिए पश्चिम दिशा की ओर जाने की तैयारी में था । अतः आचार्य उठकर अपनी गुफा की ओर चले गये ।
आचार्यदेव कभी पूर्वरचित गाथाओं के भाव का चिन्तन करते तो कभी लिखी जानेवाली गाथाओं का चिन्तन करते । संपूर्ण ग्रंथ की पूरी रूपरेखा उनके सामने लिखी हुई-सी थी । ग्रंथ पूर्ण किए बिना अंतरंग में तृप्ति नहीं हो रही थी । विचित्र सृष्टि ! विचित्र ऋषिदृष्टि !
देखो परिणामों की विचित्रता ! किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु के संबंध में अनुरक्त न होनेवाले अर्थात् सबसे सर्वथा विरक्त रहनेवाले आचार्यश्री की मनःप्रवृत्ति में इतना और ऐसा अपूर्व परिवर्तन कैसे हुआ ? ध्यान और विचारों के तरंगों पर मानों तैरते तैरते ही रात्रि समाप्त हो गयी। सूर्योदय होते ही पुनः उन्होंने गाथा लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारंभ किया । शिष्यों को परम आश्चर्य हुआ । सदा सर्वत्र सहज निर्लिप्त रहनेवाले गुरुदेव को ग्रंथरचना में सदैव अनुरक्त देखकर आश्चर्य न हो तो और क्या होगा ?