Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 113
________________ आचार्य कुंदकुंददेव ११५ जन-जागृति और धर्म- जागृति को सर्वोच्च कोटि पर पहुँचा कर सत्य सनातन दिगम्बर जैन परम्परा के लिए एक दृढ़ और भद्र नींव डाली। आचार्य देव ने वस्तुतत्व का यथार्थ निरूपण तो किया ही, लेकिन इतने मात्र से काम समाप्त नहीं हुआ उन्हें संतोष भी नहीं हुआ । शुद्धात्मतत्व, पर द्रव्य, पर- गुण और पर-पर्याय से भिन्न और स्वगुणों से अभिन्न तथा अपनी शुद्धाशुद्ध पर्यायों से भी भिन्न है यह विषय भी अत्यन्त सुलभ रीति से उन्होंने स्पष्टतया समझाया । यह जिनागम का विषय समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों के अलावा अन्यत्र दुर्लभ है । सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए निज शुद्धात्मतत्व ज्ञायकभाव के ज्ञान-श्रद्धान की सर्वप्रथम आवश्यकता है। साथ ही साथ जीवन में वीतराग चारित्र भी प्रस्फुटित हो ऐसा प्रयास करना चाहिए। आपके ग्रन्थों में प्रतिपादित परम पवित्र अध्यात्म गंगा में अवगाहन करनेवाला भव्य जीव नियमपूर्वक भवभ्रमण से मुक्त होकर शाश्वत सुख को सदा के लिए प्राप्त होता है, इसमें संदेह नहीं । कारण कि इन ग्रंथो में भव और भव के भाव के अभावस्वरूपी स्वभाव का विवेचन किया गया है । आचार्यदेव ने अपने जीवन काल में ८४ पाहुड ग्रन्थों की रचना की थी ऐसा ज्ञात होता है; लेकिन अब केवल बारह पाहुड़ ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं, शेष पाहुड़ ग्रन्थ पृथ्वी के कठोर गर्भ में लुप्त हो गये हैं। अथवा किसी ग्रन्थ भण्डार में ताड़पत्र पर लिखे हुए उद्घाटन हेतु भवितव्य की राह देखते होंगे। बारह अणुवेक्खा, भक्तिसंग्रह, भी आचार्यकृत ही रचनाएँ हैं, जिनका रसास्वादन रसिक समाज कर रहा है ।

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