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आचार्य कुंदकुंददेव
स्वामी साम्यपराधिरूढ़ धिषणः श्रीनंदिसंघाश्रियो मान्यः सोऽस्तु शिवाय शान्तमनसा श्रीकुन्दकुन्दाभिघः ॥ - अमरकीर्ति सहस्रनाम टीका
श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसघास्तस्मिन् बलात्कारगणेऽतिरम्ये . तत्राभवत्पूर्वपदांशवेदी श्री मांघनन्दी नरदेववन्द्यः ।
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पदे तदीये मुनिमान्यवृत्तो जिनादि चन्द्रः समभूदतन्द्रः । ततो भवत् पंच सुनाम धामा श्रीपद्मनन्दी मुनि चक्रवर्तिः ॥ नन्दिसंघ पट्टावली
आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव को मूलसंघ का आदि प्रवर्तक माना जाता है। कोण्डकुन्दपुर से उत्पन्न मुनि परंपरा को कुन्दकुन्दान्वय कहा जाता है। इस कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख शक संवत् ३८८ के मर्करा के ताम्रपत्र शिलालेख नं. ६४ के साथ सम्बंधित प्रतीत होता है । ६४वें शिलालेख में कोंगणिवर्म ने मूलसंघ के प्रमुख आचार्य चन्द्रनन्दि को भूदान दिया था - ऐसा उल्लेख मिलता है । और यह उल्लेख मर्करा के दानपत्र में भी मिलता है। विशेष बात यह है कि इसमें चन्द्रनन्दि की गुरु परम्परा भी दी गई है और उन्हें देशीगण के कुन्दकुन्दान्वय का बताया गया है।
१४वें शिलालेख का समय लगभग पूर्वी शताब्दि का प्रथम चरण है और मर्करा के ताम्रपत्र में संकलित समय के अनुसार वह समय ई. सं. ४६६ होता है । कोंगणिवर्म का पुत्र दुर्विनीत का काल ई. सं.. ४८० से ५२० का मध्य है । अतः ताम्रपत्र में उल्लिखित समय में कॉगणिवर्म जीवित था, जिसने चन्द्रनन्दि को दान दिया था ।