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आचार्य कुंदकुंददेव थे। दो हजार वर्ष के बाद आज भी जहाँ जाना कठिन है ऐसे स्थानों में रहते थे।
आचार्यदेव अब अस्सी वर्ष के हो गये थे। जैसे-जैसे वर्ष बीत रहे थे, वैसे-वैसे तपानुष्ठान के फलस्वरूप में स्थिरता और प्रज्ञा में प्रखरता बढ़ती जा रही थी । अब साधना की सिद्धि अन्तिम अवस्था पर पहुँच गई थी । वे सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि के रहस्य को अपने अनुभव प्रत्यक्ष से साक्षात् करते हुए आनंदमय जीवन के साथ काल यापन करते थे। __ स्वात्मानुभव के रसास्वादन के अलौकिक आनन्द और उसकी अद्भुत महिमा शिष्य समुदाय को प्रेरणा हेतु बताते थे । ऐसे अपूर्व विषय को सुनकर मुनिगण गुरुवर से ऐसे अलब्धपूर्व विषय को गाथा-निबद्ध करने का अनुरोध करते थे । लोकोद्धार का करुणाभाव बलवान होने पर आचार्य गाथा भी लिख देते थे। इसप्रकार स्वाभाविक रीति से एक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक ग्रन्थ रचना का कार्य चल रहा था। यदा-कदा दर्शनार्थ आनेवाला श्रावक समूह उन्हें लेखन-सामग्री जुटा जाया करता था। आस-पास विहार करने वाला मुनिसंघ भी एक अथवा दो माह में एकबार आचार्य महाराज के दर्शन का लाभ पाकर लौट जाया करता था । __ कालचक्र दिवसों से मास, मासों से वर्ष का निर्माण करता हुआ अपने कर्तव्य का निर्वाह अखण्ड रूप से कर रहा था। इसी कालावधि में आचार्यदेव द्वारा निर्मित २७५ गाथाओं का एक ग्रन्थ पूर्ण हुआ जिसका नाम प्रवचनसार ग्रंथाधिराज है । इस ग्रंथ में सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि का सार भरा है । (प्रवचन = दिव्यध्वनि, सार अर्थात्