Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 103
________________ -१०५ आचार्य कुंदकुंददेव उसी प्रकार श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर की मनोज्ञता, श्रेष्ठ वास्तुकला से अलंकृत मानस्तम्भ और मानवलोक को भुलाकर आत्मस्वरूप की निराकारता को बतानेवाला नीलाकाश भी बहुत ही मनोहर है। इस प्रकार निसर्ग सौन्दर्य की गोद में नैसर्गिक, निर्मल, निज आत्मा का बोध करना सुलभ है। विश्व के सभी मत प्रवर्तक सत्य की खोज के लिए निसर्ग पर अवलम्बित हैं, निसर्ग की शरण में ही गये हैं। नैसर्गिक /प्राकृतिक/ अकृत्रिम स्थान को ही आत्मसिद्धि के लिए उत्तम माना गया है। कृत्रिम नागरिकता में रहकर आजतक किसी ने भी सर्वोत्तम आत्मसिद्धि प्राप्त नहीं की, आज भी प्राप्त करता हुआ कोई देखने में नहीं आता । नगरों में नाटकीय नागरिकता रहती है, जब कि वन में सत्य-स्वाभाविकता । अत: आत्महितैषी महापुरुष नगर छोड़कर वन का आश्रय लेते हैं। जैनधर्म तो वस्तुधर्म है। वस्तुधर्म तो परम स्वतंत्र, सुखदायक और स्वाभाविक होता है। इसीलिए जैनधर्मावलम्बी सभी साधु-संत कृत्रिम नागरिकता का स्वरूप जानकर उसका त्याग करते हैं। वनवासी, स्वाभाविक, स्वेच्छा विहारी हाथी की तरह वन-जंगलों में विहार करते हैं /निवास करते हैं। आत्मकल्याण की सर्वोत्कृष्ट साधना का यही एकमात्र उपाय भी है, और साधना में पूर्ण सफलता पाने के लिए आवश्यक भी है।. · आचार्य कुन्दकुन्ददेव भी किसी नगर के समीप वास नहीं करते थे। किसी दुर्गम, निर्जन और नगर से सुदूर स्थान में निवास करते - - -

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