Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 100
________________ १०२ आचार्य कुंदकुंददेव नहीं रहेगा तो अन्य वस्तुओं को लेकर हमें क्या करना है ? इतने काल तक आचार्य देव के पवित्र सम्पर्क में रहकर हमने क्या साध्य किया? क्या समझा ? कुछ भी नहीं ? इस प्रकार की आत्मवंचना से हानि किसकी होगी? इससे दुःख भोगने का दुर्धर प्रसंग किसके ऊपर गुजरेगा?" इसप्रकार अनेक प्रज्ञाचक्षु लोग गंभीरता से सोचते थे। संसार की असारता को जानकर कुछ आसन्न भव्य जीव छाया की तरह आचार्य के अनुगामी हो रहे थे। अपना मानव जीवन सार्थक बना रहे थे । कुछ लोग वापस घर आये । कुछ लोग निर्णय करने में असमर्थ होने के कारण मार्ग के मध्य में स्थित होकर विचार कर रहे थे। आगे जानेवाले का जीवन उज्जवल बन गया, वे आत्मोन्नति के पथ पर आगे बढ़ गए । वापस आनेवाले घर पहुँच गये । परन्तु अभी भी विचार करने वाले कुछ लोग मध्य में ही खड़े थे। आचार्यदेव का संघ ग्राम, नगर, मडम्ब, पत्तन, द्रोणामुख इत्यादि स्थानों में भव्य जीवों को सम्बोधित करता हुआ पर्वतप्रदेशों में तथा वन-जगलों में ठहरता हुआ पूर्व से पश्चिम की ओर जा रहा था। जहाँ भी संघ जाता था वहाँ अपार जनसमूह एकत्रित होता जा रहा था । साधु-संतों के दुर्लभ दर्शन का संतोष उनके मन में समा ही नहीं पाता था । अत: वह भक्ति और श्रावकाचार के रूप में समाज में फैलता था । दर्शनार्थी साधु समागम से अपना जीवन धन्य हुआ -ऐसा अनुभव करते थे। आचार्यदेव का कहीं-कहीं महान उपकारी सारगर्मित मार्मिक उपदेश भी होता था । अनेक आसन्न भव्य जीव वास्तविक वस्तुस्वरूप

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