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________________ आचार्य कुंदकुंददेव अभिप्राय अनेक ज्ञानी महामनीषियों का स्वानुभूत विषय हैं । जिज्ञासु पात्र जीवों को जीवन में इस विधा को साक्षात् अनुभव करके निर्णय करना चाहिए । यहाँ अन्धानुकरण और आज्ञा को स्थान नहीं है, परीक्षा और प्रत्यक्ष अनुभव की प्रधानता है । अध्यात्म में परावलम्बन को कोई स्थान नहीं है । सामान्यतः आत्मा की तीन अवस्थाएं होती हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । ६७ बहिरात्मा अवस्था में जीव अपने निज ज्ञांता - दृष्टा स्वभाव को अर्थात् ज्ञाननिधि भगवान आत्मा को भूलकर अचेतन शरीरादि परपदार्थों में आत्मबुद्धि करता है । इस कारण चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ अत्यंत असह्य और भयंकर दुःख का अनुभव करता है । दुःख सहा तो नहीं जाता, परवशता से भोगता है। करे भी क्या ? अपने अज्ञान से दुःख भोगना पड़ता है, अज्ञान छोड़े बिना दुःख से छुटकारा भी कैसे और क्यों हो ? कभी कहता है रोगी शरीर से दुख है, कभी बोलता है प्रतिकूल वातावरण व पदार्थों से दुःख हो रहा है। कभी कदाचित् शास्त्र के पढ़कर भी मानता रहता है- मुझे कर्म हैरान कर रहे हैं। दुःख वास्तविक कारण का यथार्थ ज्ञान न होने से व्यर्थ प्रलाप करता रहता है । सुख के सच्चे उपाय को समझता नहीं, यह बहिरात्म अवस्था दुःख का मूल कारण है । इस अज्ञान से मुक्त होकर जब जीव निज शुद्धात्मस्वरूप का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान करता है, तब अन्तरात्मा बनता है। शुद्धात्मस्वरूप का अनुभव करता है। शुद्धात्मरसिक होने से मोक्षमार्गी होता
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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