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________________ आचार्य कुंदकुंददेव - - - - - - - - - - - है। शरीर, धन-वैभवादि अचेतन वस्तु अथवा पुत्र, मित्रादि चेतन। पदार्थो को सुख-दुःख का कारण न मानता हुआ सर्व पदार्थों का ! स्वतंत्र परिणमन रूप यथार्थ वस्तुस्वरूप का श्रद्धान ज्ञान ही सुख। का कारण है ऐसा निर्णय पूर्वक मानता है। अर्थात् धार्मिक होता. है, यह द्वितीय अवस्था अन्तरात्मा रूप है। अन्तरात्मा आत्मलीनता द्वारा अपना पुरुषार्थ बढ़ाता रहता है। जीवन शुद्धात्मध्यानमय बनाता जाता है | पहले से ही परद्रव्य से श्रद्धा अपेक्षा से: परावृत्त तो था ही, अब चारित्र की अपेक्षा से भी परद्रव्यों से सर्वथा परावृत्त होता हुआ आत्मरमणतारूप ध्यानाग्नि से कर्मकलंक को जलाकर अनंत चतुष्टयस्वरूप आत्मनिधि प्राप्त करके परमात्मा हो जाता है। ___ आचार्यदेव मुख्यतः शुद्धात्मानुभव रूप निर्मल जल प्रवाह में निमग्न रहते थे; तथापि जब आत्मध्यान से बाहर आते थे तव संसारी अज्ञानी जीवों की आत्मरसशून्य महापाप स्वरूप मिथ्यात्व परिणति को जानते थे । मिथ्यात्वपरिणतिरूप दुःख दावानल में दग्ध दुःखी जीवों को देखकर उनका चित्त क्षण भर के लिए करुणामय हो जाता था। उन्हें दुःखी जीवों को सुख का सच्चा उपाय बताना ही चाहिए, ऐसी तीव्र दया भावना उत्पन्न होती थी । इसलिए स्व-पर भेदविज्ञानजन्य आत्मानुभव के सामर्थ्य से आत्मतत्व का रहस्य धर्मलोभी-याचक जीवों को उपदेश के समय अपने अमृतमयी वचनों से समझाते थे । तथापि आचार्यदेव की करुणा विशेष होने से केवल शाब्दिक उपदेश करने से उन्हें संतोष नहीं था।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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