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________________ आचार्य कुंदकुददेव . . शुद्धात्मस्वरूप का यथार्थ बोध देने में समर्थ महान शास्त्र की रचना करने की तीव्र, हार्दिक और करुणामय अभिलाषा मन में पुन: पुनः उत्पन्न होती थी । अत: शुद्धोपयोग से जब शुभोपयोग में आते थे तब कुछ विचार गाथा बद्ध करने का भाव सहज ही आ जाता था। इस भाव का मूर्त रूप ही ग्रंथों की रचना के रूप में भव्य जीवों को उपलब्ध है। इस लोकोद्धारक कार्य के कारण ही नील पर्वत पर उनके निवास की काल मर्यादा स्वयमेव बढ़ने लगी । और वहाँ आसपास रहनेवाले धर्मपिपासु भव्य जीवों को यही हृदय से अपेक्षित भी था। इस प्रकार पूर्व घाटी के पर्वत श्रेणियों में से एक पौन्नर पर्वत पर ही अनेक दिवस ही नहीं अनेक महीने व्यतीत हुये | इस दीर्घ कालावधि में अनेक पाहुड़ ग्रन्थों की रचना हुई । अनेक मुनिसंघ और श्रावक-श्राविका समूह आचार्यो के परम पावन सानिध्य में आकर उनकी दर्शन विशुद्धि (निर्मल श्रद्धा) सम्यक् ज्ञान की प्रखरता और चारित्र की शुद्धि जानकर प्रभावित होते थे । उनका उपदेश सुनकर मंत्रमुग्ध से हो जाते थे और अपना जीवन पूर्णत: बदल गया; ऐसा अनुभव करते थे। जैसे पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही कुछ पात्र जीव आचार्यदेव के पावन सानिध्य से संसार से विरक्त होकर वीतरागी संत हो जाते थे। ___ इस प्रकार विशाल नीलगिरि पर्वत के भिन्न-भिन्न श्रेणी पर्वतों पर अनेक चातुर्मास पूर्ण हुए। अनेक राजाओं ने जैनधर्म धारण किया । सैकड़ों जैन मंदिर बन गये । जैनधर्म की अभूतपूर्व प्रभावना हुई ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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