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________________ १०० आचार्य कुंदकुंददेव सर्व समाज आचार्यदेव को सर्वज्ञ समान समझता था | आचार्य विषयक सबके मन में अत्यन्त आदर, प्रीति और भक्ति थी । जिस तरह तिल्ली में सर्वत्र तेल ही व्याप्त रहता है उसी तरह सबके मनोमंदिर में आचार्य श्री ही समा गये थे। सबके हृदय-सिंहासन पर एकमात्र आचार्यदेव ही विराजमान हो गये थे । अब श्रमण शिरोमणि का इस प्रान्त से विहार होगा, ऐसा अनुमान लगाकर आस पास का समाज अल्पकाल में ही आचार्य श्री के चरणों के सानिध्य में उपस्थित हुआ। उस दिन आकाश के मध्य भाग में स्थिर हुआ सूर्य, भ्रमण करते-करते मानो थक जाने के कारण अथवा अपने कर्तव्य के परिज्ञान होने के कारण अति मंद गति से अस्ताचल की और अपने चरण बढ़ाने लगा । आचार्य के पास खड़े होकर अमणसंघ उनके ध्यान टूटने के समय की प्रतीक्षा कर रहा था । श्रमण-संघ के पीछे श्रावक-श्राविकाओं का समूह भी दर्शन के लिए अति उत्कंठित होकर खड़ा था । अपार जनसमूह था लेकिन गंभीर शांति भी थी। कोई किसी के साथ न तो बात ही करते थे और न एक-दूसरे की ओर देखते ही थे । सब भक्तों की आँखों में एक आचार्यदेव ही समाये हुए थे । मानो आँखों को और किसी को देखना अभीष्ट नहीं था । रुचि ही नहीं थी/इच्छा भी नहीं थी, आवश्यकता भी नहीं थी। अल्पावधि में अनपेक्षित अपार जनसमूह को इकट्ठे हुए देखकर सभी को आश्चर्य हुआ । आचार्यदेव के विहार का अनुमान लगाकर सभी के मुख पर उद्वेग व निराशा की छाया फैल गई। किसी को किसी से कुछ
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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