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________________ आचार्य कुंदकुंददेव कहने का धैर्य ही नहीं था । बोलने की भावना कहाँ लुप्त हो गयी थी, कुछ पता ही नहीं चलता था। स्वेच्छाविहारी, स्वतंत्रवृत्तिवाले, दिगम्बर साधु को कोई क्या कह सकता है ? कदाचिद कोई धैर्य से साधु से कुछ कहें तो उनके मन में किसी की बात सुनने योग्य राग ही नहीं रहता, तो वे सुने भी कैसे ? धन्य ! धन्य ! मुनिदशा ! जो होता था वह हो रहा था। उसे मौन रीति से जान लेना ही गृहस्थों का कर्तव्य था । आचार्यश्री बाह्यतः जनसमूह के बीच में थे, तो भी वे अन्तर्मुहूर्त में अलौकिक आत्मानंद के लिए अन्तस्तल में जाते थे। फिर बाहर आना होता था । साधु महापुरुषों का जीवन स्वभावतः ऐसा ही होता है। १०१ सूर्य अपने प्रखर किरणों की सौम्य करते हुए पश्चिम दिशा की ओर तीव्र गति से गमन कर रहा था। उस समय आत्मसमाधि से बाहर आकर आचार्य महाराज ने इकट्ठे हुए जनसमूह को देखा और वे खड़े हो गए । तत्काल ही जनसमूह ने आचार्यश्री का जय जयकार किया ! वातावरण जयध्वनि से मुखरित हुआ । आचार्य श्री के चरण भी सूर्य का अनुसरण करते हुए पश्चिम दिशा की ओर बढ़े। विहार प्रारंभ हुआ । आचार्यश्री का अनुसरण करता हुआ द्रमिल संघ भी पूर्व घाटी से पश्चिम घाटी की ओर आगे-आगे बढ़ा। दिगम्बर दीक्षा धारण किए हुए शिवस्कन्धवर्मा आदि मुनि भी छाया की तरह आचार्यश्री का अनुसरण कर रहे थे । श्रमण महासंघ तमिलनाड से तुलुनाड की तरफ विहार कर रहा था । " अरे ! हमारे मलय देश से धर्म ही निकला जा रहा है। भाग्य भी हमें छोड़कर भाग रहा है। यदि हमारे देश में जीवन में धर्म ही
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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