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आचार्य कुंदकुंददेव वन्यो विभुर्भुवि न कैरिह कोण्डकुन्द: कुन्दप्रभाप्रणयकीर्ति विभूषिताश |
यश्चारुचारणकराम्बुज चंचरीक श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ॥
-चन्द्रगिरि शिलालेख ५४/६७ अर्थ :-कुन्दपुष्ष की प्रभा धारण करनेवाली जिनकी कीर्ति के द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारणऋद्विधारी महामुनियों के सुन्दर कर-कमलों के भ्रमर थे और जिन पवित्र आत्मा ने भरतक्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा वन्द्य नहीं है ?
................कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः । रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्वाह्योऽपि संव्यजयितुं यतीशः । रजा पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगलं सः ॥
-श्रवणबेलगोल शिलालेख १०५ अर्थ :-यतीश्वर (आचार्य कुन्दकुन्ददेव) रजस्थान-पृथ्वीतल को छोड़कर चार अंगुल ऊपर गमन करते थे, जिसमें मैं समझता हूँ कि वे अन्तर और बाह्य रज से अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे अर्थात् वे अंतरंग में रागादि मल से तथा बाह्य में धूल से अस्पृष्ट थे।
तस्यान्वये भूविदते बभूव या पद्मनंदि प्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि मुनीश्वराख्यस्तत्सयंमादुद्गततारणद्धिं ॥
-श्रवणबेलगोल शिलालेख ४०/६०