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आचार्य कुंदकुंददेव
भरतक्षेत्र के भव्य जीवों को सम्बोधित करनेवाले श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्टे के आभरण, कलिकालसर्वज्ञ (श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव) रचित षटप्राभृत ग्रन्थ में ..........
सोमसेन पुराण में निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है :
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कुन्दकुन्दमुनिं वन्दे चतुरंगुलचारिणम् ।
कलिकाले कृतं येन वात्सल्यं सर्वजन्तुषु ॥
अर्थ : कलिकाल ( पंचमकाल) में जिन्होंने सर्व प्राणियों पर वात्सल्य किया और जो जमीन से चार अंगुल अधर गमन करते थे, ऐसे कुन्दकुन्द मुनि की मैं वंदना करता हूँ ।
बीसवीं शताब्दी के आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य का गहन अध्ययन के बाद अपने प्रवचनों (प्रवचनरत्नाकर भाग } पृष्ठ ८१) तथा चर्चा में पुनः पुनः कहते थे :
“भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव दो हजार वर्ष पूर्व भरतक्षेत्र में हुए थे । वे सदेह महाविदेह क्षेत्र में भगवान सीमन्धर स्वामी के समोशरण में गए थे । महाविदेह क्षेत्र में भगवान सीमन्धर स्वामी अभी भी अरहंत पद में विराजमान हैं। उनकी ५०० धनुष की काया व एक करोड़ पूर्व की आयु है । उन सीमंधर परमात्मा की सदैव दिव्यध्वनि खिरती है | वहां संवत् ४६ में कुन्दकुन्दाचार्य गये थे । वे आठ दिन वहां रहे थे । वहाँ भगवान की वाणी सुनकर भरतक्षेत्र में आये। यहाँ आकर शास्त्र बनायें। यह कपोलकल्पना नहीं, वस्तुस्थिति है । प्रत्यक्ष सत्य है ।"