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आचार्य कुंदकुंददेव विभिन्न प्रान्तों में विहार करते हुए पात्र जीवों को उपदेश देते हुए आचार्य कुन्दकुन्द देव पोन्नूर गाँव के पास पर्वत पर पहुँचे । उसी पोन्नूर पर्वत को तपोभूमि के रूप में चुनकर मुनिसंघ को आस-पास विहार करने के लिए आदेश दिया। स्वयं उसी पर्वत की एक अकृत्रिम गुफा में तपस्या करने के लिए वैठ गये । पक्षोपवास, मासोपवास आदि व्रताचरण करते हुए इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों में प्रवर्तमान ज्ञान को अपने में समेटकर वे विचार करते थे
“परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न होनेवाली आत्मा की पर्यायेंअवस्थाएँ मेरी नहीं हैं, वे विभावरूप नैमित्तिक भाव हैं । उनका मैं कर्ता भी नहीं हूँ | मोह-राग-द्वेषादि सर्व भाव विभावरूप हैं। मेरा स्वभाव मात्र ज्ञाता-दृष्टा है । परद्रव्य में अहंकार-ममकारभाव ये दुःखदायक आन्ति है। भ्रान्ति स्वभावरूप तथा सुखदायक कैसे हो सकती है ? मैं तो सच्चिदानंदस्वरूपी हूँ। मैं अपने सुखदायक ज्ञाता दृष्टा स्वभाव का कर्ता-भोक्ता बनकर स्वरूप में रमण करूँ।"
इस प्रकार भेदज्ञान के बल से योगिवर्य प्रमत्त दशा में पहँचते थे। वहाँ शुद्धात्मा के रस का आस्वादन करके आनंदित हो जाते थे। फिर प्रमत्त अवस्था में आते थे। पुन:-पुनः शुद्धात्मा के आश्रयरूप तीव्र पुरुषार्थ कर के अप्रमत्त अवस्था में जाते थे। इस प्रकार अंतरंग में तीव्र पुरुषार्थ की धारा अखण्ड चलती थी बाह्य में जैसा पदमासन, लगाकर बैठे रहते थे, उसमें कुछ अन्तर नहीं पड़ता था । वे दर्शकों को पाषाण मूर्ति के समान ही अचल दिखाई देते थे।
वास्तविक रूप से देखा जाय तो शरीरादि किसी भी परद्रव्य की क्रिया आत्मा ने आज तक कभी की ही नहीं, भविष्य में भी नहीं
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अप्रमत्त अवस्था पुनः पुनः शुक्षामनदित हो जाते
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