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आचार्य कुंदकुंददेव पवित्रता के सामने कौन नतमस्तक नहीं होगा? मलयदेश के राजा शिवमृगेश ने इस महापुरूष का एक ही बार दर्शन करके अपने परम्परागत कुलधर्म का त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार किया ही है। उस राजा के निमित्त से आचार्य महाराज ने तिरूक्कुरल' ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ के प्रारमभक पद्य से ही शिवमृगेश राजा मंत्र मुग्ध सा हो गया था । जैसे
अगरमुदलवेलुत्तेला मादि ।
भगवन् मुदरे युलगु॥ अर्थ : जैसे अक्षरों में अकार प्रथम है वैसे ही लोक में (आदिनाथ) ऋषभदेव भगवान प्रथम हैं।
वेण्डुदल वेण्डमैयिलानडि शेरन्दार ।
शियाण्डु मिडुमेयिल ॥ अर्थ : भगवान को कोई इष्ट भी नहीं है और अनिष्ट भी नहीं, है,। उनकी भक्ति करनेवाले उन जैसे राग-द्वेष रहित हो जाते हैं, और वे सदा-सदा के लिए दुःखरहित हो जाते हैं।
मनतुक्कण माशिलनादलनैत्तरन् ।
आगुलनीर पिर ।। अर्थ : मन में दोष हो तो काय और वचन भी दोष युक्त हो जाते हैं । बाह्य में धर्म कार्य करते हुए भी मन के दोष से वे कार्य अधर्मरूप से परिणमित हो जाते हैं। निर्दोष मन से युक्त कार्य धर्म कहलाता
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१. तिरूक्कुरल जैनाचार्य की कृति होने पर भी कुछ विद्वान कुंदकुन्द की
रचनाधर्मिता के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं। परन्तु इसमे मतैक्य नहीं है।