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आचार्य कुंदकुंददेव इस जयघोष की ध्वनि गिरि कन्दरों में न समाती हुई अनंत आकाश में गुंजायमान हो उठी। ___ जयघोष ध्वनि की अनुगूंज के साथ ही अत्यन्त कर्णप्रिय, ललित, गंभीर व स्पष्ट ध्वनितरंग सायंकालीन शीतल हवा में फैल गयी। यह ध्वनि पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर दसों दिशाओं में समान रीति से व्याप्त हो गयी । दक्षिणोत्तर ध्रुवप्रदेश भी इस ध्वनि से अपरिचित नहीं रहे । इस मंद, मधुर तथा स्पष्ट ध्वनिप्रवाह को सुननेवालों के हृदयकपाट सहज खुल गए । अपरिचित मंजुल-मनमोहक ध्वनि सुनकर सभी स्वयमेव मंत्रमुग्ध से हो गए। इस अनुगूंज ने सहज ही निम्नांकित श्लोकरूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। .
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् -11 इस प्रकार यह ज्ञानगर्भित भक्तिपरक श्लोक दिगन्त में फैल गया । पोन्नूर पर्वत पर विराजमान मुनिसंघ के मुखकमलों से भी यह श्लोक पुनः पुनः मुखरित होने लगा। जो कि आज भी भव्यों का कंठहार बना हुआ है और भविष्य में बना रहेगा।
श्लोककर्ता के सम्बन्ध में नहीं किसी को ज्ञान था, न ही जानने की उत्कंठा और न ही कर्ता को जानने का लोभ भी । होवे भी क्यों? ___ संघ में सभी दिगम्बर महा मुनीश्वर आत्मरस के ही रसिक होते हैं। उन्हें इस प्रकार की अप्रयोजनभूत जिज्ञासा नहीं होती। १. मंगलं भगवदो वीरो, मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कोण्डकुंदाई, जेण्हधम्मोत्थु मंगलं ॥ यह मूल प्राकृत पद उपर्युक्त रीति से संस्कृत श्लोकरूप में परिवर्तित हुआ है।