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आचार्य कुंदकुंददेव
तथा साक्षात आनंददायक परम अध्यात्म पर अधिष्ठित है। आचार्य द्वारा प्ररूपित एवं उनसे स्वयं अनुभूत मार्ग का जीवन में जो कोई उपयोग करेगा वह तो स्वयं सुखी होगा ही और अन्य जनों के सुख-साधन के लिए निमित्त भी बनेगा यह वस्तुस्थिति है। इसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में करना आवश्यक है। यहाँ उधार एवं अंधश्रद्धा का कुछ काम नहीं है।
आचार्यदेव का चारण मुनि युगल के साथ विदेह क्षेत्र की और गमन हो जाने के बाद भक्त समुदाय उनके प्रत्यागमन की निरन्तर प्रतीक्षा कर रहा था । आचार्यदेव का शुभागमन कब होगा ऐसी उत्कंठा सबके मनोमंदिर में अखण्ड रूप से उछल रही थी । और दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी । जिज्ञासा दिन-दूनी रात चौगुनी होती जा रही थी । तथापि गुरुदेव के आगमन विषयक कुछ भी संकेत प्राप्त नहीं हो रहा था । आचार्य श्री के विरह का एक-एक क्षण एक-एक युग के समान श्रावक समूह को खटकता था। मुनिसंघ को गुरुदर्शन की अभिलाषा थी ही । ऐसी मनःस्थिति में एक-एक करके सात दिन बीत गए।
आठवें दिन सबने सुबह से सायंकाल पर्यंत आकाश की ओर से अपनी दृष्टि हटाई ही नहीं । “हम भोजन बनाने अथवा भोजन करने बैठेंगे और यदि इतने में ही गुरुदेव का आगमन हो गया तो हम उनके दर्शन से वंचित रह जावेंगे" इन विचारों से श्रावक-श्राविकाओं ने तो भोजन का त्याग ही कर दिया । संघस्थ मुनिराजों को तो आहार के लिए गांव की ओर जाने का विकल्प ही नहीं उठा । आठवें दिन का भी सूर्यास्त हो गया । मात्र निराशा ही हाथ लगी। निराशा