________________
आचार्य कुंदकुंददेव
"पूज्यपाद गणधरदेव की क्या आज्ञा है ?"
"परम स्वतन्त्र वीतराग जैनधर्म में दीक्षित वीतरागी, दिगम्बर महामुनीश्वरों के बीच बोध्य-बोधक भाव को छोड़कर अन्य किसी सम्बन्ध को अवकाश ही कहाँ है ? आप जैसों के लिए उनकी आज्ञा की क्या आवश्यकता हैं ?"
९०
चारण मुनिद्वय कुछ समय पर्यंत मौन रहे, फिर नयन निमीलित करके अल्पसमय तक विचार किया। फिर मुनिपुंगव की भावना को जानकर गंभीरतापूर्वक निर्णयात्मक रीति से कर्णमधुर वाणी में बोले"क्या आपको विहरमान तीर्थंकर सर्वज्ञ भगवान के साक्षात दर्शन करने की अभिलाषा है ?"
"महाविदेह क्षेत्र में जाने की अभिलाषा तो तीव्र है ही किन्तु...... “किन्तु परन्तु क्यों ? आपको चारणमृद्धि प्राप्त हुई है। ऋद्धि के अभाव में भी आप जैसे भगवत्स्वरूप के लिए कौन-सा कार्य असंभव है ?"
आचार्य कुन्दकुन्द देव को प्राप्त चारणश्रृद्धि का संतोषकारक समाचार इसके पहले किसी को भी विदित नहीं था । चारण मुनियों के मुखकमल से विनिर्गत इस विषय को सुनकर श्रावक समूह और श्रमण संघ को अत्यानंद हुआ। सभी सोचने लगे
"इस चातुर्मास में आत्मा की उग्र साधना के फलस्वरूप यह ऋद्धि प्राप्त हुई होगी । असाधारण आत्माराधना का फल ऐसा अद्भुत ही होता है। इसमें अज्ञानियों को ही आश्चर्य होता है, ज्ञानियों को नहीं । परमोपकारी आचार्य परमेष्ठी ने अपने तप के प्रभाव से पंचम