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आचार्य कुंदकुंददेव
चिन्तामग्न राजकुमार ने अपने स्थान पर खड़े होकर नम्रता से करबद्ध होकर निवेदन किया ।
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भगवन् ! दिगम्बर महासन्तों को कुछ दिन यहीं रहने के लिए रोकने का अनधिकारी यह श्रावकसमूह आपके प्रति भक्ति तथा श्रद्धा के कारण योग्यायोग्य का विचार न करते हुए वीतरागता को राग से प्राप्त करने का अज्ञान कर रहा है । आपके तथा धर्म के ऊपर हमारी वास्तविक श्रद्धा है। हमारे लिए भी यही श्रेयस्कर है कि हम पिताश्री (राजा शिवस्कन्धवर्मा) के मार्ग का अनुसरण करें । साधु (आचार्य कुंदकुंद) पर समर्पित उनका मनं साधुत्वं पर भी समर्पित हुआ इसलिए वे स्वयं साधु बन गये। परन्तु उन जैसा तीव्र- उम्र पुरुषार्थ करने का सामर्थ्य हम अपने में नहीं पा रहे हैं। अतः आपके चरणकमलों की धूल से यह पर्वत- प्रदेश और कुछ काल तक पवित्र होता रहे और हमारी पात्रता को प्रेरित करता रहे-यह नम्र निवेदन है । आपकी कृपा होगी-ऐसी आशा है ।
श्रमणसंघ और श्रावक समूह इस नम्र निवदेन को सुन रहा था, परन्तु आचार्यश्री की दृष्टि पूर्वदिशा की ओर केन्द्रित थी । राजकुमार का निवेदन समाप्त होते ही सभी की दृष्टि आचार्य की ओर आकर्षित हुई । दूसरे ही क्षण आचार्य जिस स्थान पर दृष्टि लगाये बैठे थे, सभी लोगों ने उसी ओर देखा तो आकाश में दूर कुछ प्रकाश-सा दिखायी दिया । कौतूहल / जिज्ञासा से उसी ओर अपलक दृष्टि से देखते रहने पर तेजोमय मेघ के समान कुछ अद्भुत-सा दृश्य दिखायी दिया ! क्या यह सूर्य है ? नहीं, नहीं। सूर्य तो अस्ताचल की ओर