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आचार्य कुंदकुंददेव
बोधपाहुड़ ग्रंथ की धरवीं गाथा में "बारह अंग का ज्ञाता और चौदह पूर्व का विस्तार से प्रचार करने वाले श्रुतकेवली भगवान भद्रबाहु (मेरे) गमकगुरु जयवन्त रहें !” इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द देव ने घोषणा की है।
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अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को छोड़कर यदि दूसरे ही मुनि, आचार्य कुन्दकुन्द देव के गुरु होते तो वे अपने गुरु के रूप में उनका नामोल्लेख अवश्य करते । क्योंकि अपने वास्तविक गुरु को छोड़कर श्रुतकेवली भद्रबाहु को अपने गुरु के रूप में घोषित करना और स्वयं उनका शिष्य नहीं होने पर भी अपने आपको शिष्य के रूप में घोषित करना, पंचमहाव्रत के पालन करनेवाले आचार्य द्वारा कैसे संभव होगा ? क्यों करेंगे ?
आचार्य ने स्वयं समयसार ग्रंथ के मंगलाचरण में कहा है कि “वोच्छामि समयपाहुड़मिणमो सुदकेवली भणिदं " अर्थात् मैं ( कुन्दकुन्द ) श्रुतकेवली (भद्रबाहु स्वामी) द्वारा कहा हुआ समयपाहुड़ कहता हूँ ।
आचार्यदेव ने सूत्रपाहुड़ ग्रंथ के गाथा क्रमांक २३ में कहा है“वस्त्र धारण करने वाले मुनि चाहे भले तीर्थंकर ही क्यों न हों तो भी वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेंगे, क्योंकि नग्न-दिगम्बर भेष ही मोक्षमार्ग है [२
१. बारस अंगवियाणं, चउदस पुव्वंग विउलवित्थरणं ।
सुयणाणि भद्रबाहु, गमयगुरु, भयवओ जयउ ॥
२. णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो | जग्गो व मोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥