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आचार्य कुंदकुंददेव
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काल को चतुर्थ काल सा बना दिया। इस प्रकार के साधु-संतों से सहित यह भारत भूमि परम पुनीत है, धन्य है ।"
देखते-देखते ही रत्न की प्रभा के समान उन तीनों ही महामुनीश्वरों के शरीर से चारों ओर प्रभा-बलय फैल गया । मानो उषाकालीन लोकव्यापी बालभास्कर के सुखद, सुन्दर और स्वर्ण - अरुण किरणों से वह पर्वत कंचनमय बन गया हो । इसी ऐतिहासिक आश्चर्यकारी घटना से इस पर्वत को पौनूरमलै - पौन्नूरबेट्ट यह नाम मिला होगा ।'
वह आभा - मण्डल उसी रूप में आकाश की ओर बढ़ा और बढ़ते-बढ़ते आगे आगे ही चलता रहा । वह प्रभा मण्डल अति दूर गया । प्रथम तो तीन ही ऋषीश्वर तीन कांतिमय रेखा समान प्रतीत हो रहे थे, बाद में दो, तदनन्तर एक ही प्रकाश-पुंजरूप दृष्टिगोचर हो रहे थे। अब तो वह प्रकाश मात्र नक्षत्राकार ही लगने लगा |
अन्त में चक्षुरिन्द्रिय के सामर्थ्य के अभाव से अनंत आकाश में आकार रहित निराकार बनकर अदृश्य हो गया। इस तरह भूमिगोचरी मानवों को महापुण्योदय से एक अंतर्मुहुर्त पर्यंत स्वर्गीय सौन्दर्य के अवलोकन का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
इस आश्चर्यकारी, अद्भुत और अपूर्व दृश्य को मूक विस्मय से देखनेवाले श्रावकसमूह तथा साधुसंघ ने स्वयमेव सोत्साह आचार्य कुन्दकुन्दं के नाम का तीन बार उच्च स्वरों में जय-जयकार किया।
१. पोन्न शब्द का अर्थ सोना (कन्नड़ तथा तमिल भाषा मे ) मलै - पर्वत (तमिल भाषा में) बेट्ट - पर्वत (कन्नड़ भाषा में)