________________
आचार्य कुंदकुंददेव
की कांति उनके मुख मण्डल पर झलकती थी । धन्य ! धन्य ! मुनिजीवन ।
७१
एक दिन सहज ही पश्चिम दिशा में स्थित गुफा की ओर गमन किया । जिसका प्रवेश द्वार छोटा है और जिसके अन्दर एक ही व्यक्ति पद्मासन लगाकर बैठ सकता है ऐसी गुफा में जाकर ध्यान में बैठ गये । तीव्र पुरुषार्थ करके ध्यान द्वारा लौकिक विश्व से दूर- अतिदूर अलौकिक विश्व में पहुँच गये। आत्मानंद सागर में गहरे डूब गये । सिद्धों के समान स्वशुद्धात्मा का सहज अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद प्राप्त किया । साध्य-साधक भाव का अभाव होने से द्वैत का अभाव करके अद्वैत बन गये, उसमें ही मग्न हो गये। ऐसे काल में पूर्ववद्ध पापकर्मों का स्वयमेव नाश हो रहा था । अनिच्छापूर्वक • ही स्वयमेव पुण्य का संचय हो रहा था। धर्म अर्थात् वीतरागता तो बढ़ ही रही थी । ज्ञानज्योति का प्रकाश भी फैलता गया। इसप्रकार सम्यक् तपानुष्ठान के सामर्थ्य से योगीश्वर कुन्दकुन्दाचार्य को अनेकानेक ऋद्धियों की प्राप्ति हो गई । परन्तु उन्हें सहज प्राप्त ऋद्धियों का भी मोह नहीं था । वीतरागी दिगम्बर मुनि महाराज का स्वरूप ही ऐसा होता है ।
चातुर्मास समाप्त होने पर मुनिसंघ सहज ही आचार्यश्री के दर्शनार्थ आया । गुरुदर्शन के समय संघस्थ मुनिराजों के ज्ञान में आ ही गया कि अपने गुरू को अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। पहले से भी संघस्थ मुनिराजों में गुरु के प्रति भक्ति भाव चढ़ना स्वाभाविक ही था । वे सोचने लगे--"ये आचार्य नहीं मानों भगवान बन चुके हैं। नहीं, नहीं, प्रत्यक्ष भगवान ही हैं। इनकी योगशक्ति, प्रतिभा और