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आचार्य कुंदकुंददेव
७५ मोह परिणामों को दूर करने में समर्थ ऐसे भावगर्भित वचन आचार्य के मुख से निकले
एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसण लक्षणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सय्ये संजोगलक्खणा ।। राजा शिवस्कन्धवर्मा वर्षायोग में अनेक बार वन में आचार्यदेव के सान्निध्य में आये थे । उनसे धर्मलाभ प्राप्त किया था। उनके प्रत्यक्ष जीवन, उपदेशित वीतराग धर्म, वस्तुतत्वपरक कथन आदि से वे प्रभावित थे । घर में स्वयं साधर्मियों के साथ स्वान्तःसुखाय प्रवचनसार और पंचास्तिकाय का स्वाध्याय मनोयोगपूर्वक किया था। कठिन विषयों का समाधान आचार्य से प्राप्त करके नि:शंक हुए थे। भावपाहुड़ ग्रंथ का परिपूर्ण भाव समझने की तीव्र अभिलाषा थी। अत: भावपाहुड़ ग्रंथ का स्वाध्याय प्रारंभ किया था।
राजा के मानस पटल पर उपर्युक्त गाथा का अमिट प्रमाव था। इसलिये णमोकर महामंत्र के समान इस गाथा के भाव पर बहुधा मनन-चिन्तन किया करते थे।
"ज्ञान-दर्शन लक्षणस्वरूप शाश्वत एक आत्मा ही में हैं, मेरा है और शेष सभी भाय बाह्य है, संयोगस्वरूप पर है।
"अहो! सुखद आश्चर्य ! मेरे मन में उत्पन्न होने वाले ये पुण्यमय शुभभाव भी पर ही हैं। तब पर द्रों का और उनकी अवस्थाओं का तो मेरे साथ सम्बन्ध कैसा? और मेरे हित के लिए उनका मूल्य भी क्या ?"
आज आचार्य श्री के सामने भी इसी गाथा का भाव उभर कर मन में आ रहा था । यह गाथा उनके हृदय में प्रवेश करके सतत
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