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आधार्य कुंदकुंददेव अपने इस कार्य से चतुःसंघ स्वयं भी सन्मानित हो गया | उस समय आचार्य पदमनंदि महाराज की आयु ४४ वर्ष की थी।
आचार्य पदवी पर आरूढ़ होने के बाद इनका नाम चारों दिशाओं में फैल गया । उस समय आपका नाम पदमनंदि के स्थान पर जन्मस्थान कौण्डकुन्दपुर के अन्वर्थरूप से कौण्डकुन्द और उच्चारण सुलभता के कारण कुन्दकुन्द हुआ । पट्मामृत के संस्कृत टीकाकार श्रुतसागरसुरि ने इन्हें पदमनंदि, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इस प्रकार पाँच नामों से निर्देशित किया है।
नन्दिसंघ से संबंधित विजयनगर के प्राचीन शिलालेख में (अनुमानित काल ई. सं .१३८६) उपर्युक्त पाँचों नाम कहे गये हैं। नन्दिसंघ की पट्टावली में भी ये उपर्युक्त पाँचों ही नाम निर्दिष्ट हैं। __पंचास्तिकाय की टीका में जयसेनाचार्य ने भी पद्मनन्दि आदि पाँचों ही नामों का उल्लेख किया है । पर अन्य शिलालेखों में पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द या कोण्डकुन्द इस प्रकार दो नाम ही मिलते हैं । इन्द्रनन्दि आचार्य ने पदमनंदि को कुन्दकुन्दपुर का निवासी बताया है। प्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखों में उन्हें कोण्डकुन्द कहा गया है।
संसार से विरक्त वीतरागी साधुओं के माता-पिता के नाम शिलालेखों में कहीं भी नहीं मिलते (शास्त्रों में नाम मिलते है)। कारण उनके नामों को शिलालेखों में सुरक्षित रखने व लिपिवद्ध करने की परम्परा प्रायः नहीं है। इसी कारण से सभी आचार्यों के माता-पिता के सम्बंध में ऐतिहासिक आधार नहीं मिलते। गुरुओं के