Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 64
________________ आचार्य कुंदकुंददेव किया । विहार में सज्वलन कषायांश के तीब्र उदय से संघस्थ साधुजनों को और वनजंगल में दर्शन निमित्त आये हुए श्रावक-श्राविकाओं को भी यथार्थ तत्वोपदेश तथा धर्मोपदेश भी देते थे । उनका सुमधुर, प्रभावी, भवतापनाशक तथा यथार्थ उपदेश सुनकर और निर्मल, निरावाध, परिशुद्ध आचरण प्रत्यक्ष देखकर सम्पूर्ण भारतदेश का श्रमण समूह भी उनसे विशेष प्रभावित होता था । और उनकी मन ही मन में हार्दिक प्रशंसा करता रहता था। उठे तो आत्मा, बैठे तो आत्मा और जिनके हृदय का परिस्पंदन भी आत्मामय हो गया था, उस अमण कुल तिलक मुनिपुंगव को देखकर वेषधारी साधुओं के हृदय में भय से कम्पन होता था। और अपने इस भय-कम्प को वे सामान्यजनों से छिपा भी नहीं पाते थे। इसतरह वे पद्मनंदिमुनिराज परम वीतराग सत्यधर्म की साकार मूर्ति ही बन गये थे । श्रमण परम्परा के सर्वश्रेष्ठ साधक समता परिणाम के कारण सबके मन में समान रीति से श्लाघ्य हो गये थे। ऐसे मुनिपुंगव पदमनंदि को मुनि, अर्जिका, पावक, प्राविका चतुःसंघ ने ई. स. पूर्व ६४ में आचार्य पद पर सोत्साह प्रतिष्ठित किया और १. प्रो. हार्नले द्वारा सम्पादित नन्दिसंघ की पट्टावली के आधार से यह ज्ञात होता है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव विक्रम संवत् ४६ मार्गशीर्ष वदी अष्टमी गुरूवार को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पदवी प्राप्त हुई। आगे भी ५० वर्ष, १० महीने और १५ दिवस पर्यंत आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे थे। उनकी कुल आयु ६५ वर्ष, १० महीने ओर १५ दिन की थी। प्रो. ए. चक्रवर्ती ने भी पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में यहीं अभिप्राय व्यक्त किया है। डा. ए. एन. उपाध्ये ने भी कहा है कि “उपलध सामग्रियों के विस्तृत विमर्श के बाद कुंदकुंदाचार्य का काल ई. स. का प्रारंभिक काल होना चाहिए ऐसा मेरा मानना है।" -प्रवचन की प्रस्तावना-पृष्ठ-२२

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