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आचार्य कुंदकुंददेव
इस तरह की आध्यात्मिक स्वाधीनता और आत्मा के अखण्ड ऐश्वर्य की पूर्ण प्राप्ति जिस महापुरुष को हुई है, वही वस्तुतः स्वतंत्र पुरुष है, अजित है, अक्षय है, पूर्ण सुखी है, परमात्मा है और सिद्ध भगवान है । यही सिद्धावस्था आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम साध्य है, सर्वोच्च स्थान है । यहाँ ही आत्म-विकास पूर्णता को प्राप्त हो जाता है । यह ही सिद्धावस्था /कृतकृत्यावस्था है, जहाँ कुछ करना शेष नहीं रहता । जो मुमुक्षु सिद्धत्व को प्राप्त करने के लिए निरन्तर साधना करते हैं, वे ही साधु कहलाते हैं।
संसार और संसार के दुःखों का मूल कारण तो देहात्मबुद्धिरूप अज्ञान ही है। इसी अज्ञान का नामान्तर मिथ्यात्व है। जब तक इस अज्ञान (मिथ्यात्व) का नाश नहीं होता तब तक इस आत्मा को दुःख से छूटने का मार्ग प्राप्त होने की संभावना भी नहीं है तो मोक्ष प्राप्त होने का तो प्रश्न ही कहाँ उठता ? ' देहात्मबुद्धिरूप मिथ्याबुद्धि का त्यांग अर्थात् सम्यग्दर्शन का ग्रहण श्रमण संस्कृति के तत्वज्ञान का सार है । इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव ही वास्तविक धार्मिक है, साधक है, साधु है।
सम्यग्दर्शन ही सुखी जीवन की यथार्थ दृष्टि है। सम्यक्त्वी को ही आत्माभिमुखवृत्ति प्रगट होती है । सम्यक्त्वी ही सम्यक् प्रकार से अपने गुण-दोषों का अवलोकन करके आत्मिक गुणों का विकास करता है और अज्ञानजन्य दोषों का निराकरण पुरुषार्थ से करना प्रारंभ करता है । इस प्रकार शुद्धात्माभिमुख पुरूष ही जन्म-मरणादिक संसारिक अवस्थाओं का यथार्थ स्वरूप जानता है। इसलिए जीवन की लौकिक घटनाओं से उसे हर्ष, विषाद, दुःख