Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 43
________________ आचार्य कुंदकुंददेव ४५ था । बालक की यह बात हमें आश्चर्यकारक तो लगती ही है; लेकिन साथ ही साथ असत्य-सी लग सकती है, क्योंकि तीन महीने का बालक तत्त्वचितंन कैसे और क्या करेगा ? पर हमें भी तो यह सोचना चाहिए कि बाल्यावस्था शरीर की अवस्था है या आत्मा की ? आत्मा अनादिकाल से भी कभी वालक हुआ नहीं और होगा भी नहीं । जहाँ आत्मा बालक हो नहीं सकता तो वह वृद्ध भी हो ही नहीं सकता । इतना ही नहीं, आत्मा को जन्म-मरण भी नहीं हो सकते। आत्मा तो स्वरूप से अनादि अनंत, एकरूप, ज्ञान का घनपिंड और आनन्द का रसकन्द है । जब तक संयोगदृष्टि से वस्तु को देखने का प्रयास चलता रहेगा तब तक वस्तु का मूल स्वभाव-समझकर धर्म प्रगट करने का सच्चा उपाय 'समझ में नहीं आ सकता । जहाँ धर्म प्रगट करने का उपाय ही समझ में नहीं आवेगा, वहाँ धर्म-मोक्षमार्ग सुख-शांति समाधान- वीतरागता कैसे प्रगट होगी ? एकबार शिशु पद्मप्रभ रोने लगा । धाय ने उसको पालने में सुलाकर पालना झुलाया । परन्तु शिशु का रोना बंद नहीं हुआ । धाय ने शिशु न रोवे, शांति से सो जाय अथवा खेलता रहे इसलिए विविध प्रयत्न किये, परन्तु सभी विफल गये । अतः माता शान्तला को बुलाया । उसने लोरियाँ सुनाना प्रारंभ किया ही था कि, इतने में बालक स्वयमेव शांत हो गया । द्वितीय लोरी: एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि । चिद्रूपभावोऽसि चिरन्तनोऽसि ॥

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