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आचार्य कुंदकुंददेव बाद में उन्होंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा । सेठ गुणकीर्ति कुछ क्षण तो गंभीर तथा स्थिर हो गये। बाद में नगर की ओर वापिस आ गये।
बालक पद्मप्रभ दस वर्ष पूर्ण करके ग्यारहवें वर्ष में पदार्पण कर रहा था । इस दशकपूर्ति के उत्सव को अर्थात् जन्म-दिवस की दसवीं वर्षगांठ को बड़ी धूमधाम से मनाने का निर्णय सेठ गुणकीर्ति और माता शान्तला ने किया । तीन दिन का कार्यक्रम निश्चित करके उसमें नित्य पूजन, नैमित्तिक पंचपरमेष्ठी विधान, चतुर्विध संघ को आहारदान, शास्त्रदान, तत्वचर्चा, धर्मगोष्ठी आदि कार्यक्रम निश्चित किए । कार्यक्रम पत्रिका तैयार करके ग्राम ग्राम तथा नगर-नगर में निमन्त्रण पत्र भेज दिये । पेनगोंडे और जिनकंची संघ में भी जाकर भक्तजनों ने इस धार्मिक कार्यक्रम का ज्ञान कराया । नगर के बड़े मंदिर के सामने विशाल मैदान में भव्य मंच का निर्माण किया गया। दूर-दूर के प्रदेशों के लोग तो आ ही गये, इतना ही नहीं, सुदूर प्रदेश के दिग्गज विद्वानों ने भी इस कार्यक्रम में भाग लिया । श्रेष्ठी दम्पत्ति ने खर्च और व्यवस्था करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अत: वालक का जन्मोत्सव “न भूतो न भविष्यति-ऐसा मनाया गया ।
उस जन्मोत्सव ने किस-किस पर क्या-क्या और कैसा कैसा प्रभाव डाला यह देखना अनावश्यक है। परन्तु जिस भावी महापुरुष का यह जन्मोत्सव था उस पर हुए प्रभाव को देखना-जानना अत्यन्त आवश्यक है।
जगत के तत्वज्ञानरहित सामान्यजन अनादिकाल से बहिर्मुखी पंचेन्द्रियों के द्वारा बहिर्मुखी वृत्ति का ही अवलम्बन करते आये हैं और कर रहे हैं। उन्हें सच्चे सुख का मार्ग समझ में नहीं आता और