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आचार्य कुंदकुंददेव
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ही मूल सिद्धान्त है और जीवन में सुखी होने का भी यही महामंत्र है। इसे जाने बिना जीव का उद्धार होना संभव नहीं- कल्याण भी नहीं।
दिन-रात बीतते ही जा रहे थे । बालक पद्मप्रभ तीन वर्ष का हो चुका था । वह छोटे-छोटे कदम रखता हुआ घर-भर में इधर से उधर और उधर से इधर दिनभर दौड़ता था । तुतलाता हुआ गंभीर तत्व की बात करता हुआ सभी को आश्चर्य चकित कर देता था ।
माँ शान्तला भी उसे अपनी गोद में बिठाकर पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सातत्त्व, नवपदार्थ का ज्ञान कराती थी । विषय को समझने की जिज्ञासा जानकर यथायोग्य - यथाशक्य उनके स्वरूप का भी निरूपण करती थी । इस प्रकार पंचास्तिकाय, छहद्रव्य, सात तत्व, नवपदार्थ का प्राथमिक ज्ञान तो बालक पद्मप्रभ ने माँ की गोद में ही प्राप्त कर लिया ।
तदनन्तर उसे अक्षर ज्ञान देना प्रारंभ हुआ। वह कण्ठस्थ पद्य को स्मरण करने के समान किसी भी विषय को सुलभता से ग्रहण कर लेता था । किसी कठिनतर विषय को भी एक बार कहने से उसे उसका ज्ञान हो जाता था। एक ही बार कहे गये विषय के सम्बन्ध में प्रश्न करने में प्रश्नकर्त्ता को भी संकोच होता था। लेकिन वह बालक निःसंकोच उत्तर दे देता था ।
दिन बीतते ही जा रहे थे। बालक की बुद्धि भी दिन-प्रतिदिन प्रौढ़ होती जा रही थी । इसलिए पठन-पाठन भी स्वाभाविक बढ़ता गया । घर ही विद्यालय बन गया । प्रौढ़, गम्भीर और दक्ष दो विद्वान अध्यापक न्याय, छन्द आदि विषयों को पढ़ाते थे। साथ ही साथ