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आचार्य कुंदकुंददेव
तमिल, कन्नड़, प्राकृत, संस्कृत भाषाविद् भी प्रतिदिन अर्धप्रहर के कालांश क्रम से उस उस भाषा शास्त्र को पढ़ाते थे । माता-पिता द्वारा धार्मिक संस्कार भी अखण्ड रीति से मिलते ही रहते थे ।
इसीबीच जिनकंची संघ के ज्ञानवृद्ध एवं वयोवृद्ध आचार्य पुंगव अंनतकीर्ति महाराज पेनगोंडे संघ के आचार्य श्री जिनचंद्र के साथ बिहार करते-करते कोण्डकुन्दपुर नगर के समीप आ गये। ये दोनों निर्ग्रन्थ मुनिराज श्रेष्ठीपुत्र के तीव्रतर बुद्धि, विशेष स्मरण शक्ति व कल्पना चातुर्य पर मुग्ध थे । प्रतिदिन किसी न किसी बहाने से होनहार पद्मप्रभ को अपने पास बुलाते थे और प्रश्न पूछा करते थे और उत्तर पाकर प्रभावित होते थे । वयोवृद्ध अनंतवीर्य मुनिराज अपने उपदेश में विश्व के सकल चराचार पदार्थों का स्वरूप, धर्माधर्म का स्वरूप, निश्चय-व्यवहार, उपादान - निमित्त, आत्मस्वरूप और स्व-पर कर्तृत्व की परिभाषा इत्यादि सूक्ष्म विषयों का विवेचन करते थे । पद्मप्रभ की पात्रता बढ़े ऐसा प्रयास भी करते थे । बालक की ग्रहण शक्ति को देखकर उसे उत्साहित करते थे। बालक को छोड़कर जाने के लिये उनका मन नहीं होता था। इस को साथ ले जाने का विचार प्रगट न करते हुए भी धर्ममय वात्सल्य भाव से क्वचित् कदाचित् विचारमग्न भी हो जाते थे । अन्त में अपनी मुनि अवस्था का और वीतराग धर्म के यथार्थ स्वरूप का स्मरण कर उन्होंने वहाँ से अन्यत्र विहार कर ही दिया ।
प्रस्थान प्रसंग पर अकस्मात् ही जनसमूह जुड़ गया | वह महामुनियों के साथ दूरपर्यंत चला जा रहा था । उनमें से मात्र गुणकीर्ति को बुलाकर उनसे कुछ कहकर आगे विहार कर गये ।