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आचार्य कुंदकुंददेव
जन्म-दिन के महोत्सव से श्रेष्ठीपुत्र पद्मप्रभ उत्साहित होने के बजाय गंभीर होता जा रहा था, यह उचित ही था। लोग जन्मोत्सव के अर्थ को न जानकर भी उसे मनाते हैं, इससे बालक को अत्यन्त खेद हो रहा था । "माता-पिता दोनों जन्म जयन्ती मनाकर मुझे अशरीरी - मुक्त होने के लिए मानो प्रेरणा दे रहे हैं-उत्साहित कर रहे हैं तो मैं मुक्तिमार्ग को सहर्ष स्वीकार क्यों न करूँ ? ऐसे तीव्र वैराग्य के विचार मन में पुनः पुनः उत्पन्न हो रहे थे ।
"माँ ने तो मुझे पालने में अध्यात्म के मुक्ति प्रदायक संस्कार दिये हैं, जो कि अमिट हैं ।
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सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि । संसारमायापरिवर्जितोऽसि ॥
इस तरह मुझे मेरे शुद्धात्मस्वरूप का ज्ञान कराकर मेरे ऊपर माँ ने महान उपकार किया है। अपने बालकों के सुकोमल, निर्दोष और पवित्र मन पर बचपन में प्रारंभ से ही सदाचार व मुक्तिमार्ग के संस्कार डालनेवाले ही सच्चे माता-पिता हैं। ऐसे विवेकी, दूरदर्शी व धार्मिक माता-पिता के कारण ही बालकों का दुर्लभ मानव जन्म सफल तथा धन्य बनता है । इन्होंने तो मुझे विवाहादि संसार के माया जाल में उलझने के पहले ही सावधान किया है; मुझे अपने वास्तविक कर्तव्य का बोध दिया है। अतः मेरी यह भावना है कि ये माता-पिता मेरे अंतिम माता-पिता न बन सकें तो कम से कम उपान्त्य (अंतिम के पहले वाला) माता-पिता तो बनें। मैं तो पुनः किसी को माता-पिता बनाना चाहता ही नहीं ।