Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 55
________________ आचार्य कुंदकुंददेव "अनादिकाल से इस संसारी दुःखी आत्मा के साथ जड़ शरीर का संयोग रहा है । अत: यह आत्मा जन्म-मरणरूप असह्य दुःख परम्परा को भोग रहा है । आज उसी जड़-मुद्गलमय शरीर में वास करते हुए अपने अनादि अनन्त, सुखमय शुद्धात्मा को जानकर पंचपरिवर्तनरूप संसार समुद्र से सहज रीति से सदा के लिए छूट रहा है-अनंत काल के लिए सुखी हो रहा है। इसलिए अंतिम शरीर का सम्मान करना हम सज्जनों के लिए वास्तविक शोभादायक है।" परन्तु जो शरीर आत्मा के सहज शुद्ध स्वरूप को समझने में सहायक नहीं है, उल्टा बाधक है, अत: जो दुःख परम्परा का जनक उत्पादक है, उसका गौरव, सन्मान करने में कौन-सी बुद्धिमानी है ? सार्थकता भी कैसी ? उन्मार्ग और अधोगति में ले जानेवाले शरीर का यदि (जन्मोत्सव मनाकर) सन्मान गौरव करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमें उन्मार्ग और दुर्गति इष्ट है-यह तो दुःखदायी दुर्जन का अभिनंदन हुआ। ___ जो शरीर, संसार यन्धन-रूप दुःखों से छुड़ाकर मोक्ष में पहुंचाने में सहायता करता है-निमित्त बनता है, उस अंतिम शरीर विषयक कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए जन्म-दिन महोत्सव-जन्मजयन्ती मनाना सार्थक है । इसलिए कव, किस शरीर का और कैसा जन्म-दिन मनाना चाहिए इस संबंधी मर्म समझना बहुत महत्वपूर्ण है । जन्म-दिन मनाने के पीछे कौन-सा उदात्त ध्येय है यह जानना-सोचना जरूरी है। इस प्रकार धर्म के मर्म को न जानकर केवल अन्धानुकरण करते हुए धर्म के नाम पर अधर्म का आचरण करके अनंत संसार की वृद्धि नहीं करनी चाहिए।

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