Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

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Page 46
________________ ४८ _ आचार्य कुंदकुंददेव . रो रहा है, ऐसा जानकर अध्यात्मज्ञान से मानों मंत्रित करने के लिए. ही शान्तला लोरियाँ बोलने लगी। तृतीय लोरी : कैवल्यभावोऽसि निवृत्तयोगो । निरामयो शान्तसमस्ततत्वः || परमात्मवृत्तिं स्मर चित्स्वरूपं । शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ १ ॥ चैतन्यरूपोऽसि विमुक्तभारो। भावादिकर्मोऽसि समग्रवेदी ॥ ध्याय प्रकामं परमात्मरूपं । शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ २॥ वीणा की कर्णमधुर आवाज सुनकर जैसे सर्प फण उठाकर स्वयमेव सहज आनन्दित होता है, उसी प्रकार शुद्धात्मस्वरूप की अनुपम ध्वनि तरंगों को सुनकर वह शिशु अध्यात्मविद्या से मुग्ध हो १. हे पुत्र! तुम कैवल्य भाव से युक्त (केवल ज्ञान केवलदर्शन सहित अथवा नौ केवललब्धियों से युक्त) हो, योगों (मन-वचन-काय) से निवृत्त हो, निरामय हो, समस्त तत्वों के वीतरागी ज्ञाता हो, परमात्मस्वरूपी अपने चैतन्य तत्व का स्मरण करो-यह शान्तला माता के वचन हैं, हे पुत्र इन की तुम उपासना करो। २. तुम चैतन्यस्वरूप, भाव-द्रव्य कर्मों के भार से रहित, सर्वज्ञ हो, सर्वोत्कृष्ट परमात्मा के स्वरूप का ध्यान करके शान्तला माता के वचनों का अनुसरण करो।

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