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आचार्य कुंदकुंददेव अलक्षमावो जहि देहभावं । शान्तालसावाक्युमुपासि पुत्र ॥ १ ॥
निष्कामधामोऽसि विकर्मरूपोऽसि । रत्नत्रयात्मकोऽसि परं पवित्रोऽसि ॥
वेत्ताऽसि चेताऽसि विमुंच कामं । शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ २ ॥
प्रमादमुक्तोऽसि सुनिर्मलोऽसि ।
अनंतबोधादि चतुष्टयोऽसि ॥ ब्रह्माऽसि रक्ष स्वचिदात्मरूपं ।
शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ ३ ॥ शिशु को सोता हुआ जानकर माता लोरी गाना बंद करके सो गयी । गाढ़ निद्राधीन हो गयी । एक घंटे के बाद शिशु ने फिर से रोना शुरू किया | धाय ने उठकर शिशु को झुलाया । माता शान्तला
१. हे पुत्र तुम एक, मुक्त, चैतन्यमय, चिंद्रूप. चिरन्तन (अनादि-अनंत).
अगम्य (अतीन्द्रिय) हो; देह की एकत्व-ममत्व को छोड़कर शान्तला
माता के वाक्य का सेवन करो। २. तुम निष्काम स्वरूप (सम्पूर्ण इच्छाओं से रहित), कमों से मुक्त,
रत्नत्रयात्मक, परम पवित्र, तत्वों के वेत्ता और चेता (ज्ञानादृष्टा) हो; सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग करो और शान्तला माता के वचनों की
आराधना करो। ३. प्रमाद से रहित, सुनिर्मल, अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयात्मक (अनन्त
ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यस्वरूप), ब्रह्मा (आत्मस्वरूप) हो; अपने चैतन्य स्वरूप की रक्षा करो-ऐसे शांतला माता के वचनों को ग्रहण करो।