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आचार्य कुंदकुंददेव
मनोहारी, सुखदायक अपने नेत्रयुगलों को खोलकर देखा | मात्र भगवान आत्मा को ही देखने की प्रवृत्ति वाले उन मुनिराज को कौण्डेश मक्खी के पंख से भी पतले परदे में आवृत्त ज्ञाननिधि ही दिखाई दिया। मुनिराज के आर्शीवाद रूपी जल से अभिषिक्त कौण्डेश ने अत्यन्त विनम्र एवं पूर्ण भाव से मुनि पुंगव से निवेदन किया :
“हे प्रभो ! आपके उपदेशामृत के फलस्वरूप स्वयमेव प्राप्त हुआ यह ग्रंथ आप स्वीकार करके मुझे कृतार्थ करें" ऐसा कहकर उसने ताड़पत्र-ग्रंथ को मुनिराज के पवित्र करकमलों में अति विनम्रभाव से समर्पित किया । इस शास्त्रदान के फलस्वरूप ज्ञानावरण कर्म पटल हटते गये-ज्ञान विकसित होता गया | । दैवयोग से प्राप्त उस ग्रंथ-निधि को मुनिराज को समर्पित कर कौण्डेश जहाँ गायें चर रही थीं उस स्थान की ओर तत्काल शीघ्र गति से चला । तथा सूर्य कौण्डेश से भी तीव्रतर गति से पश्चिम की ओर गमन कर रहा था । सूर्यास्त से पहले ही गायों को लेकर घर पहुँचने की आशा से कौण्डेश क्रमशः आनेवाले सभी पर्वतशिखरों पर चढ़-उतर कर गायों के पास पहुंच गया । उस समय सूर्यास्त होकर अन्धकार छा रहा था । कौण्डेश को देखकर सभी गायों ने रंभाकर उसका स्वागत किया । उसका संकेत पाकर सभी गायें घर की ओर जाने लगीं।
समय रात्रि का था । कौण्डेश गायों के पीछे-पीछे चलता हुआ दिन में घटित घटनाओं का स्मरण कर रहा था। गांव के निकट एक वृक्ष के कोटर में से कुछ आवाज आई, जिससे डरकर गायों