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आचार्य कुंदकुंददेव किसी विशिष्ट साधन के बिना ही “यहाँ होंगे, वहाँ होंगे" इस प्रकार सोचते हुए ढूंढते हुए अनेक छोटे-बड़े पर्वत शिखरों पर चढ़कर फिर उतरकर अनेक गिरि कन्दराओं में अन्दर जाकर देखा, पर कहीं भी मुनीश्वर का संकेत भी नहीं मिला | उसीसमय ग्वाले को गायें कहीं चली न जाएँ-ऐसा भय भी लगा, पर तत्काल ही यह विचार भी आया कि--
प्रत्येक पदार्थ अनादि से स्वयं से है-स्वयंभू है । तथा उसका परिणाम भी स्वतंत्र है । एक पदार्थ के परिणमन में अन्य किसी पदार्थ की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। इस विश्व में सब स्वतंत्र हैं । अज्ञानी वस्तुस्वरूप को न जानने से व्यर्थ ही दुःखी होता है। इस चिरंतन सत्य तत्व के स्मरण से उसे संतोष हुआ और पुन: उत्साह से गिरि-कन्दरों में मुनिराज को खोजने लगा।
इसी प्रकार कौण्डेश अनेक गिरि कन्दराओं पर चढ़ता-उतरता चला जा रहा था। इसी बीच सूर्य की प्रखर उष्णता में एक शिला पर विराजमान ध्यानस्थ मुनीश्वर के पावन दर्शन हुए । आनंद विभोर होकर वह अतिशीघ्रता से मुनिराज के पास पहुँचा | उसने तत्काल जान लिया कि ये सच्चिदानन्द, ज्योतिपुंज, शांत, गंभीर तथा विशेष सौम्य मुद्राधारी वे ही मुनीश्वर हैं, जिन्होंने मुझे आत्मबोध दिया था। उसने साधु महापुरूष को अत्यन्त भक्तिभाव से साष्टांग नमस्कार किया। ___ तब अतीन्द्रिय आनंद में लवलीन अर्थात् शुद्धोपयोग से शुभोपयोग की ओर आने वाले मुनिराज ने अवनि और अम्बर के मध्य में स्थित कोमल किरण सहित बालभास्कर के समान अत्यन्त