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आचार्य कुंदकुंददेव
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७ वी. शताब्दी और १०-११ वीं शताब्दी से संबंधित शिलालेख भी देखने को मिलते हैं। इसमें से अनेक शिलालेख जैनधर्म विषयक भी हैं । १६ वीं शताब्दी से संबंधित शिलालेख में न्याय - शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ आचार्य विद्यानंद स्वामी का भी उल्लेख है ।
इस गांव के दक्षिण में एक चट्टान पर तीन फीट ऊँची एक नग्न मूर्ति है । उसके पास ही अनेक शिलाखण्ड हैं, जिनके ऊपर जैनधर्म से संबंधित अनेक चिन्ह खुदे हुए हैं। समीप ही एक स्वच्छ जलाशय - सरोवर भी है । इस प्रकार यह स्थान अपने प्राचीन वैभव को तथा त्याग और तपस्या की महिमा को आज भी झलकाता है ।
परन्तु खेद की बात यह है कि किसी भी जैन संस्था अथवा भट्टारक पीठ ने यहाँ धर्मशाला, पुजारी आदि की कुछ भी व्यवस्था नहीं की है। आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी वर्ष के निमित्त से कुछ व्यवस्था विषयक कार्य यहाँ बनना चाहिए ।
अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी अकाल के कारण अपने शिष्यों के साथ दक्षिण भारत आये थे, इस कारण उस काल में दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार तीव्र गति से हुआ था । लगभग सभी राजवंश जैनधर्मावलंबी थे और वे अपने-अपने राज्य में जैन संस्कृति की प्रभावना करने में गौरव का अनुभव करते थे । उसी समय जिनकंची और पेनगोंडे ' इन दोनों क्षेत्रों पर समर्थ जैन
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दोनों जगहों के दि. जैन मंदिर अभी भी सुरक्षित हैं; लेकिन जैन संस्था के अन्य भवनों पर अजैनों का कब्जा है। पेनगोंडा का जैन भवन आज मस्जिद बन गया है। दोनों जगह एक भी जैनी का घर नहीं है। पेनगोंडे मंदिर में पार्श्वनाथ की मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है । तथापि व्यवस्था अच्छी नहीं है। जिनकंची का मंदिर ई.सं. पूर्व पूवीं शताब्दी का है - ऐसा इतिहास मिलता है। यहाँ के पुजारियों के पास सौ से भी अधिक ताड़पत्र ग्रंथ हैं। ये सभी ग्रंथ ग्रंथि लिपि में लिखे गये हैं ।