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आचार्य कुंदकुंददेव
परन्तु तत्वज्ञानहीन मानव को महा दुर्लभ मनुष्य जीवन व्यर्थ जा रहा है इसकी कुछ परवाह नहीं होती । भविष्यकालीन भोगाभिलाषा के व्यर्थ मनोरथ में समय गंवाता है । प्राप्त वर्तमानकालीन अनुकूलता को सार्थक बनाने की बुद्धि नहीं होती । उसकी भावना भी पैदा नहीं होती । आत्महित का विचार किये बिना शरीरादि पर्यायों में मोहित होकर दुःखी जीवन विताता है। मैं दुःख भोग रहा हूँ इसका भी पता नहीं रहता, आश्चर्य तो इस बात का है।
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उदित होनेवाले उस महापुरुष के आगमन का विश्व के भव्य जीव प्रतीक्षा कर रहे थे । पर उस काल रूपी पुरुष को अवकाश नहीं था, समय मिलने की संभावना भी नहीं थी । वह काल रूपी पुरुष रविचंद्र के रूप में रात्रि और दिन को अनमना सा बुन रहा था । काल बीता जा रहा था ।
इस प्रकार बैसाख से आरंभ होकर पौष मास बीत गया । शार्वरी संवत्सर का माघ मास प्रारंभ हो गया । शुक्लपक्ष की पंचमी के बाल भास्कर के उदय के साथ ही वृक्ष पर ही कली फूल बनकर पककर वृक्ष के साथ बना हुआ संयोग-संबंध समाप्त होने से डंठल से अलग होकर प्रकृति की गोद में गिरनेवाले फल के समान मंगलमय व मंगलकरण उस पुण्यात्मा ने भी नव मास के गर्भदास को पूर्ण कर कालक्रम के अनुसार भू-देवी के गोद में अपनी आँखे खोलीं ।
उस समय सूर्यप्रकाश की प्रभा में भी किसी विद्युत समूह के चमकने जैसा आभास हुआ । उस प्रभातकालीन प्रशांत समय में