Book Title: Kundakundadeva Acharya
Author(s): M B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
Publisher: Digambar Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ आचार्य कुंदकुंददेव चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर की जन्म-जयन्ती अपने गांव में धूम-धाम से मनाकर चतुर्विध संघ को भक्ति से आहार और शास्त्रदान दिया । तदनन्तर अक्षय तृतीया को चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान दिया । अन्य दिनों में भी यथाशक्ति भक्तिपूर्वक श्रावक के योग्य देवपूजा आदि पुण्यकार्यों में सहज सावधान रहते थे । इस तरह तीन माह केवल धर्म-श्रद्धा से अर्थात् आत्माशान्ति और भौतिक सुख से निरपेक्ष परिणामों से धर्म-साधना करते रहे । इनका फल उन्हें शान्ति व समाधान तो मिला ही एवं पुत्र अभावजन्य जो आकुलता थी,वह भी नहीं रही। दृष्टि एवं ज्ञान सम्यक् हो जाने से-लौकिक कामनाएँ स्वयमेव लुप्त हो गई। प्रकाश के आगमन से अंधकार का निर्गमन स्वयमेव होता है, उसे भगाना नहीं पड़ता। सेठ गुणकीर्ति और शांतला के दिन तत्वचितवन के साथ सुखपूर्वक व्यतीत हो रहे थे। एक दिन पिछली रात्रि के समय शांतला ने दो स्वप्न देखे-प्रथम स्वप्न में एक धवल, पुष्ट एवं सुन्दर बैल अपने मुख में प्रवेश करता हुआ देखा । दूसरे स्वप्न में आकाश के ठीक मध्य में अपनी अतिशीतल व कोमल किरणों से समग्र पृथ्वीतल को शुभ्र बनाता हुआ पूर्ण मनोहर अमृतमय चंद्र का अवलोकन किया। स्वप्न पूर्ण हुए और निद्रा भंग होने से शांतला जाग गयी । समीप ही सोये हुये पति गुणकीर्ति को निद्रित अवस्था में ही छोड़कर वह शयन गृह से बाहर आयी । स्नानादि नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर धवल वस्त्र पहनकर अपने गृह-चैत्यालय में प्रवेश किया। वीतरागसर्वज्ञ प्रभु का भक्तिभावपूर्वक दर्शन कर पूजन की, नित्य नियमानुसार जाप किये । इतने में ही गुणकीर्ति दर्शन के लिए चैत्यालय में आये।

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139