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आचार्य कुंदकुंददेव
पुण्यवान जीव का आपके गर्भ में आगमन और शास्त्रदान का परिणाम इन दोनों में ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक संबंध है । तथापि उस जीव का आगमन तथा शास्त्रदान के आपके परिणाम पूर्ण स्वतंत्र हैं ।
"जन्म लेनेवाले जीव के परिणाम और माता-पिता के परिणाम दोनों स्वतंत्र हैं । प्रत्येक जीव अथवा अन्य किसी भी पदार्थ में होनेवाला परिणाम उस उस पदार्थ की योग्यता से ही होता है । इसमें कोई किसी का कर्ता-धर्ता नहीं है । इस वस्तुस्वरूप का परिज्ञान नहीं होने से अज्ञानी पर पदार्थ का अपने को कर्त्ता मानता है – “मैंने किया " ऐसा मानता जानता है। ऐसे मिथ्या अभिप्राय से ही दुःखी होता है। तीन महीनों में की गयी धर्माराधना के फलस्वरूप पुत्रोत्पत्ति होगी ऐसा समझना भ्रान्ति है। धर्माराधना के समय आपके मन में कोई भी लौकिक अनुकूलता मिले ऐसी आशा-आकांक्षा भी नहीं थी ।"
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धर्माचरण निरपेक्ष भाव से ही किया जाता है । शास्त्र का स्वाध्याय न करने के कारण लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और अधर्म को धर्म मानकर अपना अहित करते रहते हैं । अपने परिणामों को सुधारने के स्थान पर बाह्य क्रियाकाण्ड में ही डुबकियाँ लगाते रहते हैं। जीव का बिगाड़ - सुधार तो अपने परिणामों पर निर्भर है, न कि बाह्य क्रियाओं पर । धर्म तो अन्दर अर्थात् आत्मा की अवस्था में होता है- (अंतरंग में होता है ।) अंतरंग के परिणामों के अनुसार बाह्य क्रियाएँ स्वयमेव सुधरती हैं । भाव बदलने पर भाषा, भोजन एवं भ्रमण स्वयमेव बदलते जाते हैं। बाह्य क्रिया के लिए हठ रखना कभी भी योग्य / अनुकूल नहीं खींचकर की गई क्रिया धर्म नाम नहीं पाती।