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आचार्य कुंदकुंददेव
वस्तु का स्वभाव स्वतंत्र व अद्भुत है । वह कानन अपनी योग्यता से जल गया और यह तना अपनी योग्यता से बच गया। वस्तुस्वरूप ही ऐसा है-ऐसा सोचकर उसका ध्यान १५ दिन पूर्व सुने हुए मुनिराज के उपदेश की ओर चला गया ।
जंगल में साधु महापुरुष ने द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतंत्रता की बात कही थी। वह कथन सर्वथा सत्य है। हम उस स्वतंत्रता को न मानते हुए अपने अज्ञान से अपना ही अहित कर रहे हैं।
इस प्रकार सोचता हुआ कौण्डेश उस वृक्ष के तने के पास पहुँचकर देखता है कि तने के कोटर में ताड़पत्र सुरक्षित हैं। ताड़पत्रों को बाहर निकालकर देखते ही पता चलता है कि ये केवल ताड़पत्र ही नहीं लेकिन ताड़पत्रों पर शास्त्र लिपिबद्ध हैं | ग्वाले ने सोचा - इस शास्त्र की सुरक्षा हो इस कारण से ही यह तना बच गया है, अन्यथा यह कैसे संभव था ? ___उसे याद आया कि आत्मा के चिर-अस्तित्व का निरूपण करते हुए उस दिन मुनीश्वर ने कहा था : आत्मा धूप से नहीं मुरझाता, जल में नहीं भीगता, अग्नि से नहीं जलता, तीक्ष्ण धारवाले खड्ग से नहीं भेदा जा सकता-इस शास्त्र में भी ऐसे ही आत्मा का विवेचन होगा इसलिए ऐसी भयंकर अग्नि में भी यह सुरक्षित रह गया है।
"परम शांत मुद्राधारी उन मुनिमहाराज ने मुझे मेरी आत्मा का वास्तविक स्वरूप समझाया है। अत: मुझे भी उन्हें यह अदाह्य-न जलनेवाला अमूल्य ग्रंथ देकर कृतार्थ होना चाहिए । इससे गुरू के मुख से शास्त्र सुनना सार्थक हो जायेगा | मेरी कृतज्ञता भी व्यक्त होगी' इसी निर्णय के साथ कोण्डेश वन में मुनिमहाराज को खोजने लगा।