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आचार्य कुंदकुंददेव
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कौण्डेश दो सप्ताह के बाद गायों के साथ उसी पुरानी जगह जाकर देखता है कि हरे-भरे वृक्षों से भरा वह कानन आग की चपेट में आकर श्मशान सदृश भस्मीभूत हो गया है। वृक्षों की शाखाओं में घर्षण हो जाने से उत्पन्न अग्नि सम्पूर्ण अरण्य की आहुति ले चुकी थी । शिकायत भी किससे करें ? कौन सुनेगा ?
प्रत्येक जड़-चेतन वस्तु में उनकी योग्यता के अनुसार ही सतत परिवर्तन होता रहता है। ज्ञानी जीव इस स्वाभाविक परिवर्तन को सहज स्वीकार करके सुखी रहता है और अज्ञानी व्यर्थ ही राग-द्वेष करके दुःखी होता है। इस विश्व में किसी भी जीव को अन्य कोई जीव अथवा जड़ पदार्थ सुखी-दुःखी कर ही नहीं सकते, यह तो त्रिकालाबाधित सत्य है ।
जंगल में सर्वत्र दृष्टिपात करने से यहाँ वहाँ केवल पर्वत के शिखर ही दिखाई दे रहे थे। एक भी वृक्ष का नामोनिशान नहीं था। आश्चर्यचकित उस बाल - ग्वाले ने चारों तरफ नज़र घुमाकर देखा तो पास ही में किसी एक वृक्ष का तना-सा दिखाई दिया । तथापि उसे विश्वास नहीं हुआ - कोई चट्टान-सी लगी। इस दावानल में वृक्ष का तना कैसे सुरक्षित रह सकता है ? इसी संदेह के साथ वह आगे बढ़कर देखता है तो वह एक विशाल वृक्ष का तना ही था । इसके ऊपरी भाग को कब किसने काटा था, सर्वज्ञ ही जाने । वह तना आग की लपेट में न आकर पूर्ण सुरक्षित बच गया था । यह जानकर कौण्डेश को परम आश्चर्य हुआ ।
इस विशाल भयंकर वन को किसने जलाया और वृक्ष के मात्र इस तने को किसने बचाया ? काल की गति विचित्र है । प्रत्येक