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आचार्य कुंदकुंददेव का हमें अध्ययन अवश्य करना चाहिए | एवं उनकी सुखदायक साधना से परिचित होकर उसे अपने जीवन में यथाशक्ति प्रगट करने का मंगलमय कार्य करना चाहिए । अत: आइए प्रथम इनके जीवन के संबंध में अद्यावधि पर्यंत शोध-बोध से प्राप्त विषयों का ऐतिहासिक तथा तात्विक दृष्टिकोण से अवलोकन करें।
एक ओर घना जंगल और उसमें ही शिखर-समान शोभायमान उत्तुंग पर्वत, उन पर्वतों को पराभूत करके अपनी उन्नति को दर्शानेवाले गगनचुम्बी वृक्ष, दूसरी ओर समतल प्रदेशों में उगी हुई हरी-भरी घास का मैदान तथा इन दोनों के मध्य में मन्द मन्द प्रवाहमान स्वच्छ जल की निर्झरणी, ये सब एकत्र होकर निसर्ग सौन्दर्य के अत्यधिक वैभव को दर्शा रहे थे।
यह स्थान नगर के कृत्रिम जीवन से प्रान्त जीवों को स्वाभाविक, सुख-शान्तिदायक था । इस शांत तथा निर्जन स्थान में यदाकदा संसार, शरीर और भोगों से विरक्त अनेक साधुवर आकर उन पर्वतों की गुफाओं में बैठकर आत्मा की आराधना करते थे; अनुपम आत्मानंद भोगते थे। ___ लगभग पंद्रह वर्ष का कौण्डेश नामक ग्वाला था | यह एक भोला-भाला, सरलस्वभावी नवयुवक अपने स्वामी की गायों को लेकर उसी घास के मैदान में चरने के लिए छोड़ता था । और स्वयं उस निर्मल व मनमोहक निर्झरणी के पास विशाल शिलाखण्ड पर बैठकर प्रकृति के सौन्दर्य का रसपान किया करता था।
एक दिन कितने ही सुसंस्कृत नागरिकों को उस जंगल में आते हुए देखकर कौण्डेश को आश्चर्य हुआ । वह सोचने लगा :- "मैं