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आचार्य कुंदकुंददेव
देह अथवा परद्रव्य के प्रति उसे आकर्षण शेष नहीं रहता । संसार का कोई भी पदार्थ उसके मन को रंजित नहीं करता ।
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सारांश यह है कि उसकी वृत्ति आत्मोन्मुख होती है । यही साधु-जीवन का सत्य स्वरूप है । भव्य जीवों के सौभाग्य से ऐसे आदर्श साधु महापुरूष यदाकदा उत्पन्न होते रहते हैं और वे सनातन सत्य परम्परा को अक्षुण्ण तो रखते ही है भविष्य के लिए भी उसे सुरक्षित बनाते हैं।
परन्तु आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमारे आध्यात्मिक जीवन का मूल्य विनाशोन्मुख होता जा रहा है। अहिंसा और त्याग का आदर्श पिछड़कर हिंसा और भोग का प्राबल्य हो रहा है। आत्मा को देव मानकर उसकी सेवा के लिए देह का उपयोग करने के बजाय देह को देव मानकर देह की सेवा के लिए आत्मा श्रम कर रहा है।
शिक्षण, कला, उद्योग, समाज, राज्यव्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में भोग-प्रधान भौतिक सामग्री का नग्न नृत्य हो रहा है। शरीर में स्थित आत्मा को महत्व न देकर शरीरादि भौतिक सामग्री को ही महत्व दिया जा रहा है । यह सामग्री जिनके पास अधिक है, उन्हें श्रेष्ठ माना जा रहा है । मूल्य आत्मा का नहीं किंतु शरीरादि भौतिक सामग्री का ही आंका जाने लगा है।
इस प्रकार अक्षय आत्मा की महत्ता क्षयोन्मुख हो रही है। आत्मा का अस्तित्व ही संशय व अज्ञान के गहरे गड्ढे में प्रवेश कर रहा है। जिसको अपने आत्म-स्वरूप का पता नहीं है, वह दूसरों की | आत्माओं और उनके मूल्यों को भला कैसे जान सकता है ? निज