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दोनों वचनों के तीनों पुरुषों में ज्जा,ज्ज प्रत्यय भी होते हैं) अभवियसत्तो दुजो अधीएज्ज । (स.२७४) अधुव वि [अध्रुव] अस्थिर, अविनश्वर, एक भावना का नाम।
(स.७४) जीवणि-बद्धा एए अधुव। (स.७४) । अपच्चखाण/अपच्चक्खाण न [अप्रत्याख्यान] परित्याग न करने की प्रतिज्ञा, अत्याग। (स.२८३,२८५) अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं । (स.२८३) अपडिक्कमण/अपडिकमण न [अप्रतिक्रमण] अनिवृत्ति, अशुभव्यापार में प्रवृत्ति, दुष्कृत के प्रति पश्चात्ताप नहीं होना। (स.२८३-२८५) अपडिक्कमणं दुविहं (स.२८४) अपत्त न [अपात्र] 1. अपात्र, जो योग्य न हो। (द्वा.१८) जो सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से रहित है, वह अपात्र है। सम्मत्तरयणरहिओ, अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो । 2. वि [अप्राप्त प्राप्त नहीं हुआ । (स. ३८२) बुद्धिं सिवमपत्तो। (स.३८२) अपत्थणिज्ज [अप्रार्थनीय] प्रार्थना से रहित, अनिन्दनीय। (प्रव.चा.२३) अपत्यणिज्जं असंजदजणेहिं । (प्रव.चा.२३) अपद वि [अपद] पदरहित, द्रव्य। अपदे (द्वि. ब. स.२०३) अपदे
मोत्तूण गिण्ह तह णियदं। अपदेस पुं [अप्रदेश] प्रदेशरहित, अपरिमाण विशेष, असंयुक्त। (स.१५, प्रव.४१, प्रव. जे. ४५,४६) अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।
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