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139 वि अर्थ] योगार्थ, योग का प्रयोजन । (मो.३०) जोइ पुं [योगिन्] योगी, मुनि। (निय.१५५, सू.६, चा.४०) जो मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य को मन, वचन और कायरूप त्रियोग से छोड़कर मौनव्रत को धारण करता है, वह योगी है। मिच्छत्तं अण्णाणं, पावं पुण्णं चएवि तिविहेण | मोणव्वए जोई, जोयत्थो जोयए अप्पा।। (मो.२८) विस्तार के लिए देखें -मो.३-३६ एवं ४१,४२,५२,६६,८४। जोइणो (प्र.ब.मो.७१) जोग पुं योग] योग, चित्तनिरोध, इच्छा का रोकना। (पंचा.१४८, स.१९०, निय.१३७) जो विपरीत भाव को छोड़कर सर्वज्ञकथित तत्त्वों में अपने आपको लगाता है, उसका वह अपना भाव योग है। (निय.१३९) योगं मन, वचन, और काय के व्यापार से होता है। जोगो मणवयणकायसंभूदो। (पंचा.१४८) जोगो (प्र.ए.पंचा.१४८, स.१९०) जोगे (द्वि. ब.भा.५८, निय.१००) जोगेहिं (तृ.ब.भा.११७) जोगेसु (स.ब.स.२४६) -उदअ पुं [उदय] योग का अभ्युदय। तं जाण जोगउदअं। (स.१३४) -णिमित्त न [निमित्त] योग का कारण । जोगणिमित्तं गहणं । (पंचा.१४८) -परिकम्म पुंन [परिकर्म] योगों का परिकर्म, योगों का परिणाम। (पंचा.१४६) -भत्तिजुत्त वि भक्तियुक्त योग की भक्ति से संयुक्त। (निय.१३७) -वरभत्ति स्त्री [वरभक्ति योग की श्रेष्ठ कल्पना, योग की एकाग्र श्रेष्ठवृत्ति। (निय.१४०) -सुद्धि स्त्री [शुद्धि] योग की शुद्धि। मुच्छारंभविजुत्तं, जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं। (प्रव.चा.६)
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